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होती है, त्यों-त्यों मेरी आत्मा ऊर्ध्वगामी बनती है। यह ऊर्ध्वगामिता ही उसका मूल स्वभाव या धर्म होता है, जिसकी प्राप्ति के साथ वह गुणों के सोपानों पर भी ऊपर से ऊपर तक चढ़ती हुई चली जाती है।
मुझे इसी प्रकाश की अपेक्षा है। मैं अंधकार से इसी प्रकाश में आगे से आगे बढ़ते रहने का दृढ़ इच्छुक हूं। मैं अंधकार से जागता हूं और उससे दूर हटता हूं तो सांसारिक मोह-व्यामोह से दूर होता हूं तथा उसी परिमाण में कर्म बंधनों से मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ता हूं। इसका अर्थ होता है कि मैं विषय-कषाय की आग से दूर होता हूं और सत्कृत्यों की शीतलता को प्राप्त करता हूं। अशान्ति से दूर होता है और शान्ति का रसास्वादन करता हूं। दुःखों की असह्य वेदना को भूलता हूं और आत्म सुख की अनुभूति लेता हूं। यही अवस्था गुण-विकास की होती है।
आत्मा के गुण विकास की अवस्थाएं आत्मा के गुण-विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान मैं अपने लिये आवश्यक मानता हूं, क्योंकि यह ज्ञान ही मुझे संसार से मोक्ष तक की दूरी के बीच में पड़ने वाले मील के पत्थरों की जानकारी देता है। वीतराग देवों ने ये मील के पत्थर चौदह की संख्या में बताये हैं और यह भी बताया है कि किस प्रकार की साधना के बल पर एक मील के पत्थर से दूसरे मील के पत्थर तक पहुंचा जा सकता है और अपनी प्रगति की निरन्तरता को कैसे बनाई हुई रखी जा सकती है? साधना की उस उत्कृष्टता का स्वरूप भी समझाया गया है कि जिसकी सफल क्रियान्विति से ऊपर की ऊंची चढ़ाई पर पहुंच जाने के बाद पांव फिसल कर नीचे की ढलान पर वापस लुढ़क जाने से भी बचा जा सकता है। इन ऊर्ध्वगामी सोपानों को गुणस्थान नाम से पुकारा गया है जो चौदह हैं
गुणस्थानों का द्वारों से विचार मेरी मान्यता है कि आत्मिक गुणों के इन स्थानों का सभी अपेक्षाओं से विचार किया जाना चाहिये ताकि उनका स्वरूप पूर्णतया स्पष्ट हो सके। ये सारे गुणस्थान कषाय की तारतम्यता पर प्रमुखतः आधारिक हैं अतः कषाय के बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता, स्थिति, क्रिया, निर्जरा आदि का ज्ञान आवश्यक है।
(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान—जैसे पीलिये रोग वाले को सफेद रंग की वस्तु भी पीली दिखाई देती है, उसी प्रकार मिथ्या दृष्टि वाली आत्मा वस्तु स्वरूप को विपरीत रूप में देखती है। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा की श्रद्धा और ज्ञान की ऐसी विपरीत दृष्टि बनती है। मिथ्यात्वी आत्मा कुदेव में देव बुद्धि, कुगुरु में सुगुरु बुद्धि तथा कुधर्म में धर्म बुद्धि रखती है। आत्मा की इसी अवस्था को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं।
आश्रव के पांच भेदों में पहला मिथ्यात्व है, जो कर्मों के आगमन का मुख्य स्त्रोत होता है। इस विपरीत श्रद्धान रूप मिथ्यात्व के पांच भेद होते हैं—आभिग्रहिक -सिद्धान्त का पक्षपात पूर्ण मंडन व खंडन। अनाभिग्रहिक—गुण दोष देखे बिना सब सिद्धान्तों को समान बतलाना । आभिनिवेशिक अपने पक्ष को असत्य जानते हुए दुराग्रह करना। सांशयिक देव गुरु के स्वरूप में शंका लाना तथा अनाभोगिक इन्द्रिय-विकल जीवों को रहने वाला मिथ्यात्व । यों मिथ्यात्व दस माने गये हैं जो धर्म, मार्ग, जीव, साधु तथा मुक्तात्मा से सम्बन्धित है। यह विपरीत श्रद्धान् आत्मा को गुणों के निकृष्ट स्थान रूप पहले गुणस्थान में पतित बनाये रखता है।
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