Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 398
________________ (५) देशविरत गुणस्थान–प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जो आत्मा पापजनक क्रियाओं से सर्वथा निवत्त न होकर एक देश से निवत्त होती है, वह उसका देशविरति अथवा श्रावक व्रत होता है। कोई श्रावक एक व्रत को धारण करता है अथवा एकाधिक व्रत भी अंगीकार करता है किन्तु उसका यह त्याग दो करण तीन योग (अनुमोदन का त्याग नहीं) से होता है। अनुमोदन या अनुमति तीन प्रकार की है— प्रतिसेवनानुमति-अपने या दूसरे के लिये बने हुए भोजन आदि का उपभोग करना। प्रतिश्रवणानुमति–पुत्र आदि किसी सम्बन्धी द्वारा किये गये पाप कर्म को सुनकर भी पुत्र आदि को उस पाप कर्म से नहीं रोकना तथा संवासानुमति—जो श्रावक पाप जनक आरंभों में किसी प्रकार से योग नहीं देता, केवल संवासानुमति को सेवता है, वह अन्य सब श्रावकों से श्रेष्ठ है। (६) प्रमत्त संयत गुणस्थान—जो आत्मा पापजनक व्यापारों से सर्वथा निवृत्त हो जाती है वही संयत (मुनि धर्म का पालन करती हुई) होती है। संयत होने पर भी जब तक प्रमाद का सेवन चलता है तब तक वह प्रमत्त संयत कहलाती है और उसका यह छठा गुणस्थान होता है। संयत (मुनि) को सावध व्यापार का सर्वथा त्याग होता है वह संवासानुमति का भी सेवन नहीं करता। इस गुणस्थान से लेकर आगे तक किसी भी गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय नहीं रहता। (७) अप्रमत्त संयत गुणस्थान—जो मुनि निन्द्रा, विषय, कषाय, विकथा आदि प्रमादों का सेवन नहीं करते, वे अप्रमत्त संयत होते हैं और उनका स्वरूप इस गुणस्थान वाला होता है। आत्मा में अशुद्धि का कारण प्रमाद होता है।और प्रमाद छूटने से आत्मा की विशुद्धि बढ़ने लगती है। यही कारण है कि इस सातवें गुणस्थान से आत्मस्वरूप उत्तरोत्तर विशुद्ध होने लगता है तथा इस गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में अवस्थित मुनि-आत्माएं प्रमाद का सेवन नहीं करती। वे मुनि जागृत होते हैं। (८) निवृत्ति बादर गुणस्थान—जिस आत्मा के अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया व लोभ चारों निवृत्त हो गये हों उसके स्वरूप विशेष को निवृत्ति बादर गुणस्थान कहते हैं। इस गुण स्थान से दो श्रेणियां प्रारंभ होती हैं –उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी। उपशम श्रेणी वाली आत्मा मोहनीय की प्रकृतियों का उपशम करती हुई ग्यारहवें गुणस्थान तक जाती है और क्षपक श्रेणी वाली आत्मा मोहनीय कर्म का क्षपण करती हुई दसवें से सीधी बारहवें गुणस्थान में जाकर अप्रतिपाती हो जाती है—नीचे नहीं गिरती है। जो आत्माएं इस आठवें गुणस्थान को प्राप्त कर चुकी है, प्राप्त कर रही है और जो प्राप्त करेगी, उन सबके अध्यवसाय स्थानों की संख्या असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर है। इस गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है। जितनी आत्माएं और जितने समय, उतने ही अध्यवसायों के प्रकार । अन्तिम समय तक पूर्व पूर्व समय के अध्यवसाओं से पर-पर समय के अध्यवसाय भिन्न-भिन्न समझने चाहिये तथा पूर्व पूर्व समय के उत्कृष्ट अध्यवसायों की अपेक्षा पर-पर समय के जघन्य अध्यवसाय भी अनन्त गुना विशुद्ध समझने चाहिये। आठवें गुणस्थान के समय जीव पांच वस्तुओं का विधान करता है—स्थिति घात –जो कर्म दलिक आगे उदय में आने वाले हैं, उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा अपने-अपने उदय के नियत समयों से हटा देना रस घात –बंधे हुए ज्ञानादि कर्मों के प्रचुर रस को अपवर्तना करण के द्वारा मन्द कर देना । गुणश्रेणी—जिन कर्म दलिकों का स्थितिघात किया जाता है उनको प्रथम के अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना । गुण संक्रमण—जिन शुभ कर्म प्रकृतियों का बंध अभी हो रहा है ३७३

Loading...

Page Navigation
1 ... 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490