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भाव से उसे षट्जीव निकाय के वध की अनुमोदना भी लगती है और उसका एषणा शुद्धि का विचार भी ढीला होता है। भक्त कथा भी चार प्रकार की होती है – आवाय कथा (भोजन बनाने की विधि की कथा), निर्वाय कथा (अन्न, व्यंजन की विविधता की कथा), आरंभ कथा ( जीव हिंसा सम्बन्धी कथा बनाने में) तथा निष्ठान कथा ( भोजन में लागत की कथा रुपयों की ) ।
(३) देश कथा - देश कथा करने से विशिष्ट देश के प्रति राग या दूसरे देश से अरुचि होती है जो कर्म बंध का कारण बनता है । स्वपक्ष व परपक्ष की चर्चा में वादविवाद से कलह भी खड़ा हो सकता है तथा कई प्रकार के दोष लग सकते हैं। इसके भी चार भेद हैं—–— देशविधि कथा (देश विशेष के भोजन, मणि, भूमि आदि की चर्चा ) देश विकल्प कथा ( देश विशेष में धान्य उत्पत्ति, सिंचाई साधन, भवन आदि की चर्चा ) देश छंद कथा (गम्य, अगम्य विषयक चर्चा ) तथा देश नेपथ्य कथा (स्त्री पुरुषों के स्वभाव, शृंगार आदि की चर्चा ) ।
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(४) राज कथा - राजा या राज्य से सम्बन्धित राजनैतिक चर्चा करना । चार प्रकार — अतियान कथा ( राजा के नगर प्रवेश व वैभव का वर्णन) निर्याण कथा ( नगर से बाहर जाने व ऐश्वर्य का वर्णन) बल वाहन की कथा ( राजा की चतुरंगिणी सेना, वाहन आदि का वर्णन ) तथा कोष और कोठार की कथा (राजा के खजाने और भंडार का वर्णन ) ।
(५) मृदुकारुणिकी – पुत्र आदि के वियोग से दुःखी माता आदि के करुण, क्रन्दन की
चर्चा |
(६) दर्शनभेदिनी – दर्शन याने सम्यक्त्व में दोष लगे ऐसी चर्चा करना जैसे ज्ञान आदि की अधिकता के कारण कुतीर्थी की प्रशंसा करना ।
(७) चारित्रभेदिनी – चारित्र की उपेक्षा या निन्दा करने वाली चर्चा जैसे आज कल साधु महाव्रतों का पालन नहीं कर सकते, साधुओं में प्रमाद बहुत बढ़ गया है आदि ।
चारित्र शुद्धि की दृष्टि से धर्मकथा को ही महत्व दिया गया है। यह कथा – चर्चा दान, दया, क्षमा आदि धर्म के अंगों का वर्णन करने वाली तथा धर्म की उपादेयता बताने वाली होनी चाहिये। यह चार प्रकार की है – आक्षेपणी (श्रोता को मोह से हटाकर तत्व की ओर आकर्षित करना आचार, व्यवहार, प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद की अपेक्षा से) विक्षेपणी ( श्रोता को कुमार्ग से सन्मार्ग पर लाना अपने सिद्धान्त के गुणों, स्थापना, अभिप्राय और आस्तिक्य बताकर ) संवेगनी (श्रोता में विपाक की विरसता बताकर वैराग्य उत्पन्न करना इहलोक, परलोक, स्वशरीर और पर शरीर के भेदों से) तथा निर्वेदनी (श्रोता में पाप-पुण्य के शुभाशुभ फल को बताकर संसार से उदासीनता पैदा करना भव भवान्तरों की कर्म फल विचित्रता का वर्णन करके) ।
मैं इससे रत्नत्रय की महत्ता को जानता हूं और विचार करता हूं कि इसकी सम्यक् साधना कितनी निष्ठा, वैचारिकता, विवेक, संयम तथा तपाराधना से की जानी चाहिये क्योंकि इसी का शुभ परिणाम मोक्ष प्राप्ति में प्रतिफलित होता है ।
संसार से मोक्ष कितनी दूर ?
मैंने मोक्ष का स्वरूप जाना है, मोक्ष के राजमार्ग पर आगे बढ़ाने वाली रत्नत्रय की साधना के स्वरूप को पहिचाना है और अब मैं सोचता हूं कि संसार से मोक्ष की कितनी दूरी है – इसको
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