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वैयावृत्य तप का मूल्यांकन करते हुए मुझे समझ में आता है कि प्रायश्चित, विनय और वैयावृत्य तपों की जैसे एक कड़ी है तथा यह कड़ी लोकोपकार की महत्ता को प्रकाशित करती है। किसी को कष्ट दिया हो तो उसका खेद करना व फिर किसी को कष्ट न देने की प्रतिज्ञा करना प्रायश्चित तप है तो विनय तप मन-मानस को ऐसा शुभ मोड़ दे देता है कि सबके प्रति सहिष्णु बन जाय तथा सबका समादर करें। उसके बाद क्रम आता है कि अपने विचार और आचार से सभी प्राणियों को सुख पहुंचावें। इस उद्देश्य की पूर्ति में ही व्यक्तिगत सुख पहुंचाने की प्रक्रिया वैयावृत्य तप से प्रारंभ होती है जो विशाल एवं व्यापक रूप लेती हुई समाज, राष्ट्र एवं मानवता तथा सम्पूर्ण प्राणी समूह की सेवा के रूप में परिणत हो जाती है। इस सेवा के कई रूप हो सकते हैं, किन्तु उद्देश्य यही रहता है कि अपने क्रिया कलापों से अधिक से अधिक लोग या प्राणी सुख का अनुभव करें। इस तप की आराधना में सेवा की तन्मयता इतनी गहरी हो सकती है कि तपस्वी अपने स्वार्थों को तो त्यागता ही है, लेकिन अपने हितों तक को भूल जाता है एवं सेवा कार्यों में सर्वस्व न्यौछावर करके आत्म विसर्जित बन जाता है।
___ मैं मानता हूं कि वैयावृत्य व्यक्ति की तथा सेवा समाज (अपने वृहत्तम अर्थ में) की होती है। जैसे एक साधु होता है, वह अपने आचार्य, गुरु आदि की वैयावृत्य करता है, अपनी सेवा से उन्हें सुख शाता उपजाता है तो क्या वह वीतराग वाणी के उपदेशों का प्रसार करके और कल्याण का मार्ग दिखा कर सम्पूर्ण विश्व की सेवा नहीं करता ? कोई सेवा किसी रूप में करता है तो कोई अन्य रूप में किन्तु सेवा का लक्ष्य एक ही होता है कि अधिक से अधिक प्राणियों को सुख मिले। दया और दान क्या होते हैं ? इस सेवा के ही तो प्रकारान्तर हैं। किन्तु सेवा के इतने प्रकार होते हैं कि लोग उन्हें समझ नहीं पाते और उसके परिणामों के प्रति निष्कर्ष नहीं निकाल पाते हैं इसी कारण सेवा धर्म को अगम्य माना गया है। वह अगम्य उनके लिये ही नहीं होता जो सेवा पा रहे हैं, बल्कि कई बार उनके लिये भी अगम्य रह जाता है जो स्वयं सेवा कर रहे होते हैं। सेवा की गूढ़ता खोजना और उसका रसास्वादन करना महान् तपस्या का ही सुफल होता है।
वैयावृत्य या सेवा तप की एक आन्तरिकता और होती है। दूसरों को सुख पहुंचावें – यह तो इस तप में है ही किन्तु जब दूसरों को सुख पहुंचाना चाहते हैं तो निश्चय ही अपना सुख गौण हो जाता है लेकिन सेवा के क्षेत्र में एक कदम और आगे बढना होता है। वह इस रूप में कि दसरों (गुरुजनों) की वैयावृत्य करते हुए अथवा व्यापक रूप से सेवा करते हुए स्वयं को कष्ट भी उठाने पड़ते हैं। किन्तु सेवा तप की भावना इतनी उत्कृष्ट होती है कि तप का आराधक उन कष्टों को कष्ट रूप मानने को ही तैयार नहीं होता, बल्कि उन कष्टों को अपने आत्मिक आनन्द का स्त्रोत मानता है। इस रूप में सेवा तप की आराधना एक सच्चे आराधक के लिये आत्म-विकास का महान् चरण रूप होती है।
मैं वीतराग वाणी का ध्यान करता हूं, जिस में कहा गया है कि वैयावृत्य तप की सम्यक् आराधना से कर्मों की महानिर्जरा होती है तथा पुनः कर्मों के उत्त्पन्न न होने से महापर्यवसान होता है अर्थात् उस तपस्वी आत्मा का आत्यन्तिक अन्त होता है। इस महानिर्जरा और महापर्यवसान के पांच बोल बताये गये हैं—(१) आचार्य (२) उपाध्याय (सूत्र पढ़ाने वाले ज्ञानदाता) (३) स्थविर (४) तपस्वी तथा (५) ग्लान साधु की ग्लानिरहित बहुमानपूर्वक वैयावृत्य करता हुआ श्रमण निग्रंथ ३४०