Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 378
________________ मैल प्रक्षालित होता रहता है और आत्म-स्वरूप निर्मल बनता जाता ऐसी तपोपूत आत्मा ही शक्ति का केन्द्र बनती है। मैं वैसी आत्म शक्ति का दर्शन वीतराग देवों के जीवन में करता हूं और चिन्तन करता हूं कि ऐसी शक्ति का धारक बनकर मैं भी लोकोपकार के नये नये आयाम साधूं। मैं इस दृष्टि से अपनी आत्मा को भी तपोपूत बनाने का निश्चय करता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि बिना तपाराधन के मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है, कारण, बिना तपाराधन के कर्मों की निर्जरा नहीं होती है। अतः मैं तप करने के उद्देश्यों की मीमांसा करना चाहता हूँ और उन उद्देश्यों को इस रूप में रखता हूं (१) आत्म रूपान्तरण—मैल से गंदे बने कपड़े को साबुन सोड़े से धोने का प्रयल करेंगे, तभी स्वच्छ निकल कर उस कपड़े का रूपान्तरण हो सकेगा। मैं भी तपाराधन से इस रूप में अपने आत्मस्वरूप का रूपान्तरण करना चाहूंगा। यह रूपान्तरण अशुभता से शुभता में होगा। आत्मा के लिये साबुन-सोड़े का काम तप करता है जो कर्म मैल को निर्जरा के रूप में दूर कर देता है। मैं तपाराधन द्वारा कर्मक्षय करके आत्मा के रूप को निर्मलता में परिवर्तित कर दूंगा। मैं तप की आराधना अपने मनोबल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा, आरोग्य, क्षेत्र को दृष्टि में रखते हुए करता हूं किन्तु प्रयल करता हूं कि मेरा मनोबल निरन्तर बढ़ता रहे। मैं तपश्चरण को उसी रीति में योग्य समझता हूं जिससे मन समाधि में रहे, अमंगल की चिन्ता न हो, आर्त व रौद्र ध्यान न सतावें तथा इन्द्रियों व योगों का हनन न हो। तपाराधना में न तो प्रदर्शन की कामना होनी चाहिये तथा न ही अन्य प्रकार की ऐहिक शंसाएं। तपाराधन की केन्द्र स्थली आत्मा रहे तथा मैं आत्म रूपान्तरण के प्रति सदा सतर्क रहूं। (२) देह-मोह-नाश-तपाराधना के क्षणों में मैं अपने आत्मस्वरूप पर गंभीर चिन्तन करूं तथा अनुभूति लूं कि मैं अर्थात् मेरी आत्मा मेरे ही शरीर से पृथक है। मैं जो तप कर रहा हूं, उसका उद्देश्य एक ओर आत्मा को तपा कर निर्मल बनाना है तो दूसरी ओर देह को तपाकर उसके प्रति जमे हुए मोह से भी मुझे मुक्ति लेनी है। तप का उद्देश्य देह त्याग नहीं, बल्कि देह बुद्धि और देह मोह का त्याग करना तथा विदेही की अनुभूति लेनी है। मैं सोचता हूं कि भूख प्यास, पीड़ा वेदना देह को होती है, आत्मा को नहीं अतः अनन्त आनन्द की शाश्वत स्त्रोत आत्मा का धर्म अलग है तथा देह का धर्म अलग है। (३) इच्छाओं और आसक्ति का अन्त—मैं तपश्चरण का यह महत्वपूर्ण परिणाम समझता हूं कि तप जितना दृढ़ संकल्प के साथ साधा जायगा, उतनी ही त्वरित गति से इच्छाओं का संशोध और आसक्ति का अन्त होता जायगा जबकि अनेकानेक इच्छाएं व आसक्तियां ही आत्मा को लुभाती हैं और पतन के गहर में गिराती है। मैं तप काठिन्य को बढ़ाता हुआ अज्ञान, विषय व कषाय का समूल विनाश करता रहूंगा। तपश्चरण के महान् उद्देश्यों को केन्द्रस्थ बनाकर मैं तप के महात्म्य का भी निरन्तर चिन्तन करता रहूंगा ताकि तपश्चरण के प्रति मेरी अभिरुचि अभिवद्ध होती जाय। मेरी मान्यता है कि आत्म विकास की महायात्रा को सफल बनाने के लिये तप ही आध्यात्मिक उष्मा और ऊर्जा है, जो आत्म गति को ऊर्ध्वगामी बनाती है। मोह-ममत्व एवं कर्मो के लेप को हटाना तप सेवन के बिना अशक्य है। तपश्चरण से आत्मा निर्मल होती है तथा बाह्य एवं आन्तरिक जीवन निर्विकार बनता है। इस रूप ३५३

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