Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 389
________________ स्याद्वाद पहले वस्तु धर्म के सारे पहलुओं की जानकारी कर लेता है। सभी पहलुओं को सप्तभंगी के रूप में बताये जाते हैं—(१) कथंचित् है (२) कथंचित नहीं है (३) कथंचित् है और नहीं है (४) कथंचित् कहा नहीं जा सकता (५) कथंचित् है फिर भी कहा नहीं जा सकता, (६) कथंचित् नहीं है फिर भी कहा नहीं जा सकता तथा (७) कथंचित् है, नहीं है, फिर भी कहा नहीं जा सकता। वस्तु के विषयभूत अस्तित्व आदि प्रत्येक पर्याय के धर्मों के उक्त रूप में सात प्रकार के ही होने से व्यस्त और समस्त, विधि निषेध की कल्ना से सात ही प्रकार के सन्देह उत्पन्न होते हैं, अतः सात ही प्रकार के उत्तर उपरोक्त सप्तभंगी में दिये गये हैं। __ प्रमाण की परिभाषा यह बताई गई है कि यह सच्चा ज्ञान अपना और दूसरों का निश्चय कराता है। प्रमाण ज्ञान वस्तु को सब दृष्टि बिन्दुओं से जानता है अर्थात् वस्तु के सभी अंशों को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण ज्ञान कहते हैं। इसके चार भेद कहे गये हैं (१) प्रत्यक्ष-अक्ष का अर्थ आत्मा और इन्द्रिय है अतः इन्द्रियों की सहायता के बिना आत्मा के साथ सीधा सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान अवधि ज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान तथा केवल ज्ञान होता है और इन्द्रियों से सीधा सम्बन्ध रखने वाला इन्द्रिय ज्ञान होता है। दोनों ही प्रत्यक्ष होते हैं। आत्मा की सहायता से होने वाला ज्ञान निश्चय में तथा इन्द्रियों की सहायता से होने वाला ज्ञान व्यवहार में प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। (२) अनुमान–लक्षण या कारण को ग्रहण करके सम्बन्ध या व्याप्ति के स्मरण से पदार्थ का जो ज्ञान होता है याने साधन से साध्य का जो ज्ञान होता है, वह अनुमान प्रमाण है। (३) उपमान—जिसके द्वारा सदृशता से उपमेय पदार्थों का ज्ञान होता है उसे उपमान प्रमाण कहते हैं। जैसे गवय गाय के समान होता है। (४) आगम-शास्त्र द्वारा होने वाला ज्ञान आगम प्रमाण कहलाता है। मैं नय और प्रमाण के विश्लेषण से यह जान पाया हूं कि वीतराग देवों ने आत्मा को स्वतंत्र विचार एवं निर्णय का कितना विशाल क्षेत्र सौंपा है ? मात्र आगम प्रमाण के सिवाय सभी प्रमाण और नय की कसौटी पर आत्मा को ही सम्यक्त्व का ज्ञान करना होता है और उसी रूप में अपनी वृत्तियों को परख कर निर्णय लेना होता है। इस दृष्टि से आत्मा प्रत्येक वस्तु-स्वरूप पर स्वयं चिन्तन करे और निर्णय ले जिसका समाधान सम्यक्त्व की कसौटी पर और आगम प्रमाण के अनुसार किया जा सकता है। मूलतः ज्ञान एवं दर्शन के समन्वित रूप को उपयोग कहा गया है। जो उपयोग पदार्थों के विशेष धर्मों का जाति, गुण, क्रिया आदि का ग्राहक है वह ज्ञान है। जो उपयोग पदार्थों के सामान्य धर्म याने सत्ता का ग्राहक है वह दर्शन है। ज्ञान साकार उपयोग और दर्शन निराकार उपयोग होता है। ज्ञान के दो भेद किये गये हैं—(१) प्रत्यक्ष व (२) परोक्ष । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना साक्षात् आत्मा से जो ज्ञान हो वह प्रत्यक्ष ज्ञान है जैसे अवधि, मनःपर्यय व केवल ज्ञान । इन्द्रियों और मन की सहायता से जो ज्ञान हो वह परोक्ष ज्ञान है जैसे मति व श्रुत ज्ञान । इस रूप में ज्ञान के पांच भेद हुए। ३६४

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