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हैं -(१) शरीर व्युत्सर्ग–ममत्व रहित होकर शरीर का त्याग करना, (२) गण व्युत्सर्ग—अपने सगे सम्बन्धी या शिष्य वगैरा का त्याग करना, (३) उपधि व्युत्सर्ग-भंड, पात्र, उपकरण आदि का त्याग करना, (४) भक्तपान व्युत्सर्ग-आहार पानी का त्याग करना, (५) कषाय व्युत्सर्ग-क्रोध, मान, माया तथा लोभ कषायों का त्याग करना, (६) संसार व्युत्सर्ग-नरक आदि के आयुष्य-बंध के कारण संसार के कारणभूत मिथ्यात्व आदि का त्याग करना एवं (७) कर्म व्युत्सर्ग कर्म बंधन के कारणों का त्याग करना। इन सात व्युत्सर्गों में से प्रथम चार द्रव्य तथा अन्तिम तीन भाव व्युत्सर्ग कहलाते हैं। जैसे कषाय व्युत्सर्ग के क्रोध मान, माया, लोभ रूप चार भेद होते है, वैसे ही संसार व्युत्सर्ग के भी चार भेद हैं—नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य व देव एवं कर्म व्युत्सर्ग के आठ भेद हैं—ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गौत्र तथा अन्तराय।
___ मैं अपने अनुभव के आधार पर चिन्तन करता हूं कि यह ममत्व ही संसार परिभ्रमण का मूल है और इसी कारण आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सर्वाधिक शक्तिशाली माना गया है –कर्म दल का सेनापति । अतः कर्मों के सारे बंधनों को तोड़कर मुक्ति मार्ग की ओर गति करनी है तो मुझे अपनी अपूर्व आत्मशक्ति का स्वरूप दर्शन करना होगा जो समीक्षण वृत्ति की सहायता से ही मैं कर पाऊंगा। अपनी आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में मैं स्पष्ट जान लूंगा कि मेरी मुक्ति का मार्ग किधर है ? और वह मार्ग है तपाराधन का, जिसकी पूर्णाहूति होती है व्युत्सर्ग तप से। ममत्व का सर्वथा त्याग ही आध्यात्मिक जीवन का परम साध्य है क्योंकि इस त्याग के पश्चात् संसार के सभी हेतु विनष्ट हो जाते हैं तथा समत्व योग की प्राप्ति हो जाती है। समभाव, समदृष्टि एवं समता के सर्वोच्य आनन्द में आत्मा का रमण अव्याबाध और शाश्वत बन जाता है। आत्मा की अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन एवं अनन्त सुख की यह अवस्था ही उसे अनन्त शक्ति की अनुभूति देती है तथा सर्वशक्तिमान के पद से विभूषित बनाती है।
__ तपस्या का अ आ इ ई ___ मैं बारह प्रकार के तपाराधन का यह विवेचन समझता हूं तो एक बात मन में उठती है कि प्रबुद्ध, भव्य और सशक्त आत्माओं के लिये तो साधना का विशाल क्षेत्र है, किन्तु अपने आपको अशक्त मानने वाली आत्मा यदि किंचित् जागरण के प्रभाव से तपाराधन प्रारंभ करना चाहे तो वह क्या करे ? उसके लिये तपस्या का अ आ इ ई याने आरंभ क्या हो सकता है ? उसके लिये ऐसे तप होने चाहिये जिनकी साधना सरल हो किन्तु फल की दृष्टि से भी उनका महत्त्व कम नहीं हो। ऐसे तपाराधन के प्रति सामान्य जन भी सहज रूप से प्रभावित हो सकते हैं।
___मैं समझता हूं कि अति सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति को भी आत्मा और शरीर के अलगाव का ज्ञान करा दिया जाय, कर्मों के मैल से आत्मा की स्वरूप विकृति का भान दिला दिया जाय और यह बता दिया जाय कि विषय कषाय के घात–प्रतिघातों से इस सांसारिक जीवन में कितने घोर कष्ट भोगने पड़ते हैं तो उसकी चेतना को तपाराधन की दिशा में प्रभावकारी मोड़ दिया जा सकता है। उसे तपाराधन के निम्न सामान्य प्रयोग बताये जा सकते हैं। तथा उसे प्रेरित किया जा सकता है कि वह उस प्राथमिक अवस्था में अपनी संकल्प शक्ति को सुदृढ़ बनाता हुआ आगे बढ़ता जावे
(१) प्रतिदिन तीन मनोरथ का चिन्तवन किया जाय । इसमें त्याग कुछ नहीं करना है, केवल त्याग की भावना बनानी होती है। तीन मनोरथ इस प्रकार हैं-(अ) वह दिन मेरे लिए धन्य होगा,
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