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ध्यान रूपी महल पर चढ़ने के लिये स्वाध्याय के चार प्रकार वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा प्रधान अवलम्बन होते हैं। धर्म ध्यानी की चार भावनाएँ मुख्य होती हैं- (१) एकत्त्व भावना—इस संसार में मैं अकेला आया हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं किसी का नहीं हूँ। (२) अनित्य भावना-शरीर अनेक विघ्न बाधाओं एवं रोगों का स्थान है और प्रत्येक पदार्थ नश्वर हैं। (३) अशरण भावना जन्म, जरा, मृत्यु भय से पीड़ित एवं वेदना से व्यथित इस संसार में आत्मा का त्राण रूप कोई नहीं है सिवाय सद्धर्म के। (४) संसार भावना—संसार की अवस्थाएँ अति विचित्र होती है।
___एक अन्य अपेक्षा से भी धर्म ध्यान के चार भेद किये गये हैं : (१) पिंडस्थ (पृथ्वी अग्नि आदि पांच धारणाओं का एकाग्रता से चिन्तन करना) (२) पदस्थ (पंच परमेष्ठि में किसी पद पर आश्रित होकर मन को एकाग्र करना (३) रूपस्थ (अरिहंत भगवान के शान्त रूप को हृदय में स्थापित करके मन को एकाग्र करना। एवं (४) रूपातीत (निरंजन निर्मल सिद्ध भगवान् का आलंबन लेकर उनके साथ अपनी आत्मा की एकरूपता का चिन्तन करना)।
(४) शुक्ल ध्यान—जो ध्यान आठ प्रकार के कर्मों का मैल दूर करता है तथा जो सम्पूर्ण शोक को नष्ट करता है, वह शुक्ल ध्यान है। इस ध्यान के माध्यम से पूर्व विषयक श्रुत के आधार पर मन की अत्यन्त स्थिरता एवं योग का निरोध साधा जाता है तथा बिना किसी दूसरे के अवलम्बन के निर्मल आत्म स्वरूप पर तन्मयता पूर्वक चिन्तन किया जाता है। शुक्लध्यानी इन्द्रिय-सम्बन्धित विषयों का सम्बन्ध होने पर भी अपने वैराग्य के बल से अपने चित्त को बाहरी विषयों की ओर नहीं ले जाता एवं अपने शरीर का छेदन-भेदन होने पर भी स्थिर रहकर चित्त को अपने शुक्ल ध्यान से लेश मात्र भी नहीं डिगमिगाता है।
शुक्ल ध्यान के भी चार भेद बताये गये हैं—(अ) पृथकत्त्व वितर्क सविचारी–शुक्ल ध्यान के इस प्रकार में ध्यानी साधक एक द्रव्य से सम्बन्धित अनेक पर्यायों का पृथक् पृथक् रूप से पहले जाने गये श्रुत के अनुसार विस्तारपूर्वक द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदि नयों से गंभीर चिन्तन करता है। यह ध्यान विचार सहित होता है तथा विचार का स्वरूप होता है अर्थ, व्यंजन (शब्द) और योगों में संक्रमण । इस ध्यान में अर्थ से शब्द में, शब्द से अर्थ में और शब्द से शब्द में तथा अर्थ से अर्थ में एवं एक योग से दूसरे योग में संक्रमण होता है। यह शुक्ल ध्यान पूर्वधारी को होता है जो पूर्वगत श्रुत के अनुसार विविध नयों से पदार्थों की पर्यायों का भिन्न-भिन्न रूप से चिन्तन करता है। कभी यह ध्यान उनको भी प्राप्त हो सकता है जो पूर्वधारी नहीं हैं। उन्हें यह ध्यान अर्थ, व्यंजन एवं योगों में परस्पर संक्रमण रूप होता है। (ब) एकत्व वितर्क अविचारी–शुक्ल ध्यान के इस प्रकार में ध्यानी साधक पूर्वगत श्रुत का आधार लेकर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्त्व अर्थात् अभेद से किसी एक पदार्थ अथवा पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करता हैं। इस ध्यान में अर्थ, व्यंजन एवं योगों का संक्रमण नहीं होता। बिना हवा वाले घर में रखे हुए दीपक के समान इस ध्यान में चित विक्षेप रहित होकर स्थिर रहता है। (स) सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती-मोक्ष गमन के पहले केवली भगवान् मन, वचन के योगों का भी निरोध कर लेते हैं और अर्ध काय-योग का भी निरोध कर लेते हैं। उस समय केवली के कायिकी उच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रिया ही रहती है। परिणामों की विशेष उच्चता के कारण इस स्तर से केवली पुनः पीछे नहीं हटते हैं। इस रूप का होता है शुक्ल ध्यान का तीसरा प्रकार। (द) समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती -शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर केवली सभी योगों का
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