Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 372
________________ की फिक्र में लगे रहना एवं न मालूम दूसरा क्या करेगा – इस आशंका से रात-दिन ग्रस्त रहना और दूसरों का उपघात करने की कषायमयी चिन्तना करना रौद्र ध्यान के इस प्रकार में होता है। रौद्र ध्यान उन लोगों के साथ लगा रहता है जो राग, द्वेष एवं मोह से सदा आकुल व्याकुल रहता है। हिंसा, मृषा, चौर्य एवं संरक्षण स्वयं करना, दूसरों से कराना एवं करते हुए की प्रशंसा (अनुमोदना) करना - इन तीनों कारण विषयक चिन्ता करना रौद्रध्यान का रौद्र रूप होता है । रौद्रध्यान के भी चार लक्षण बताये गये हैं : (अ) आसन्न दोष – रौद्र ध्यानी हिंसा आदि से निवृत्त न होने के कारण बहुलता पूर्वक हिंसा आदि में से किसी एक पाप में प्रवृत्ति करता है—यह आसन्न दोष है । (ब) बहुलदोष – रौद्रध्यानी हिंसा आदि सभी पापों व दोषों में प्रवृत्ति करता है – यह बहुलदोष है । (स) अज्ञान दोष – अज्ञान के कारण कुशास्त्र के कुसंस्कार से नरक आदि गति दिलाने वाले अधर्म-स्वरूप हिंसा आदि कार्यों को धर्म कार्य मान कर उस बुद्धि से उन्नति के लिये प्रवृत्ति करना अज्ञान दोष है। इसे नानादोष भी कहते हैं, क्योंकि रौद्र ध्यानी विविध हिंसा आदि के उपायों में अनेक बार प्रवृत्ति करता है । (द) आमरणान्त दोष- मरण पर्यन्त क्रूर हिंसा आदि के कार्यों में अनुताप या पछतावा नहीं होना और हिंसा आदि के कार्यों में प्रवृत्ति करते रहना यह दोष है । (३) धर्म ध्यान — वीतराग प्रणीत धर्म और उनकी आज्ञा के अनुरूप वस्तु-स्वरूप के चिन्तन मनन में मन को एकाग्र बनाना धर्म ध्यान है । यह ध्यान श्रुत एवं चारित्र धर्म से युक्त होता है। धर्मध्यानी सूत्र एवं अर्थ की ज्ञान-साधना करता है, महाव्रतों को धारण करता है, बंध और मोक्ष तथा गति और आगति के हेतुओं का विचार रखता है, पांचों इन्द्रियों के विषयों से निवृत्ति लेता है तथा प्राणियों के प्रति दया भाव से द्रवित होता है और इन सभी प्रवृत्तियों में स्थिरचित्ती बनता है । धर्म ध्यान में रत रहने वाली आत्मा वीतराग एवं सुगुरु के गुणों का कथन करने वाली, उनकी प्रशंसा करने वाली, श्रुतिशील एवं संयम में अनुरक्त होती है। धर्मध्यान के चार प्रकार होते हैं - (अ) आज्ञा विचय- वीतराग देव की आज्ञा (उपदेश वाणी) को सत्य मानना, उस पर श्रद्धा करना तथा उसमें प्रतिपादित तत्त्वों पर चिन्तन और मनन करना। वीतराग देवों की वाणी कैसी होती है ? सूक्ष्म तत्त्वों की विवेचना करने से यह अति निपुण, अनादि - अनन्त, सभी प्राणियों के लिये हितकारी, अनेकान्त का ज्ञान कराने वाली, अमूल्य, अपरिमित, अन्य प्रवचनों से अपराभूत, महान् अर्थवाली, महाप्रभावशाली, नयभंग एवं प्रमाण से गहन अतएव अकुशल जनों के लिये दुरज्ञेय होती है। वीतराग आज्ञा की पूर्ण सत्यता में ऐसा निःशंक विश्वास होना चाहिये कि यदि वीतराग देवों के प्रतिपादित तत्त्व के रहस्य को समझाने वाले आचार्य महाराज समक्ष न हों, ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से या दुर्बल बुद्धि के कारण कोई स्वरूप, हेतु या उदाहरण समझ में नहीं आवे, तब भी विचारों में किसी प्रकार का सन्देह प्रविष्ठ नहीं होना चाहिये । यही विचारधारा रहनी चाहिये कि वीतराग देवों द्वारा असत्य कथन का कोई कारण नहीं क्योंकि वे अनुपकारी जन के प्रति भी उपकार में तत्पर रहने वाले जगत् में प्रधान, त्रिलोक और त्रिकाल के ज्ञाता, एवं राग, द्वेष व मोह के विजेता होते हैं। इस निष्ठा के साथ वीतराग वाणी का चिन्तन-मनन करना और गूढ़ तत्त्वों के विषय में कोई शंका न रखते हुए उन्हें दृढ़तापूर्वक सत्य समझना तथा वीतराग की आज्ञा में मन को एकाग्र करना आज्ञा विचय धर्मध्यान है । (ब) अपाय विचय - इस प्रकार के अनुसार राग, द्वेष, कषाय आदि के अपायों के चिन्तन करने में मन को एकाग्र करना है । राग-द्वेष, कषाय, मिथ्यात्व, अविरति आदि आश्रव एवं क्रियाओं से होने वाले ऐहिक व पारलौकिक कुफल और हानियों पर विचार करना । ३४७

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