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स्वाध्याय के इन भेदों पर जब मैं गंभीर चिन्तन करता हूँ तो मेरा हृदय प्रकाश से भर उठता है। वीतराग देव सर्वज्ञ थे और वे जानते थे कि यदि ज्ञानार्जन पूर्ण नहीं होगा और उसके पहले ही प्रवचन देना प्रारंभ कर दिया गया तो उसके दो परिणाम सामने आ सकते हैं। एक तो यह कि स्वयं शंका-पूर्ण हृदय वाला प्रवचन-दाता जब प्रवचन देगा और श्रोताओं की शंकाओं का निराकरण नहीं कर सकेगा तो उससे सज्ञान के प्रसार की अपेक्षा भ्रान्तियों का ही प्रसार अधिक होगा। कई बार तो इस अधकचरेपन से सम्यक् ज्ञान भी लांछित होगा। दूसरे, यदि श्रोताओं में अधिक ज्ञानी पुरुष हुए और उन्होंने प्रवचन दाता को सही तत्त्व स्वरूप बताना चाहा तो उससे प्रवचन दाता के प्रति सामान्य लोगों की अश्रद्धा भी पैदा हो सकती है। मैं सोचता हूँ कि यों तो ज्ञान के महासागर को आत्मसात् करना अत्यन्त श्रमसाध्य विषय है, फिर भी यथासाध्य ज्ञान की पूर्णता साधने का शिष्य का यत्न होना चाहिये और कम से कम जिन विषयों का वह प्रवचन में उल्लेख करना चाहता है, उन पर उसका गूढ़ आत्म विश्वास एवं अधिकार होना चाहिये। ऐसा होने पर ही सद्धर्म का प्रभावशाली प्रचार संभव होता है।
मैं इस विश्लेषण से अनुभव करता हूँ इस मर्म का कि स्वाध्याय को तप क्यों कहा गया है? वह भी इतना ऊँचा तप जो आभ्यन्तर तप क्रम में भी बहत ऊपर रखा गया रूप में आत्म चिन्तन के लिए अध्यायों का अध्ययन हो तथा उससे आत्म चिन्तन विकसित बने, तभी जाकर अपने ज्ञान की धारा बाहर प्रवाहित की जा सकती है क्योंकि वैसी अजस्र धारा ही दूसरों को अपने आत्म विकास की बलवती प्रेरणा दे सकती है। वीतराग देवों ने यह भी बताया है कि गुरु शिष्य को वाचना देने एवं सूत्र सिखाने के समय निम्न बोलों को ध्यान में रखें :
(१) शिष्य को शास्त्र ज्ञान का ग्रहण हो और उनके श्रुत का संग्रह हो —इस प्रयोजन से शिष्य को वाचना देवे।
(२) उपग्रह के लिए शिष्य को वाचना देवे, जिससे सूत्र सीखा हुआ शिष्य आहार, पानी, वस्त्र आदि की शुद्ध गवैषणा द्वारा प्राप्ति कर सके और जो गवैषणा उसके संयम की सहायक बन सके।
(३) सूत्रों की वाचना देने से मेरे कर्मों की निर्जरा होगी—इस विचार से गुरु वाचना देवे ।
(४) गुरु यह सोचकर भी वाचना देवे कि वाचना देने से मेरा सूत्रज्ञान भी अधिक स्पष्ट हो जायेगा।
(५) शास्त्र का व्यवच्छेद न हो और शास्त्र की परम्परा चलती रहे इस प्रयोजन से गुरु शिष्य को वाचना देवे।
शिष्यों के लिए भी निर्देश दिये गये हैं निम्न पांच प्रकारों में कि वे किस प्रयोजन से ज्ञानार्जन करें :
(१) तत्त्वों के ज्ञान के लिए सूत्र सीखें। (२) तत्त्वों पर श्रद्धा करने के लिए सूत्र सीखें। (३) चारित्र के लिए सूत्र सीखें। (४) मिथ्याभिनिवेश छोड़ने के लिए अथवा दूसरों से छुड़वाने के लिए सूत्र सीखें।
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