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(१) वाचना-शिष्य को सूत्र (शास्त्र) एवं उनका अर्थ पढ़ाना वाचना कहलाता है। शिष्य का कर्त्तव्य है कि गुरु जिस रूप में सूत्र की वाचना दे व उच्चारण करे, उसी रूप में वह वाचना ले तथा उच्चारण करे। वाचना में सूत्र के शब्दों एवं उसके अर्थ -भावार्थ पर पूरा ध्याय दिया जाना चाहिये। उसमें हीनाक्षर, अत्यक्षर, पदहीन, घोषहीन आदि दोषों से बचने का पूरा यल होना चाहिये।
(२) पृच्छना—वाचना ग्रहण करने के बाद उस में किसी प्रकार का संशय होने पर पुनः पूछना पृच्छना कहलाता है। पहले सीखे हुए सूत्र आदि के ज्ञान में भी शंका होने पर प्रश्न करना पृच्छना है। इसका अभिप्राय यह है कि शिष्य को वाचना लेने के बाद उस पर पहले ही अपने मन में तर्क-वितर्क और चिन्तन मनन करना चाहिये तभी पढ़े हुए ज्ञान में शंका की स्थिति पैदा हो सकती है। ज्यों ही किसी भी प्रकार की शंका उत्पन्न हो, उसे गुरु से पूछकर उसका समाधान ले लेना चाहिये।
(३) परिवर्तना-पढ़ा हुआ ज्ञान विस्मृत न हो जाय, इस उद्देश्य से उसे बार बार फेरने को परिवर्तना कहते हैं। एक-एक पढ़े हुए सूत्र को बार बार फेरने से उसे भुलाया नहीं जा सकेगा, इस कारण शिष्य को परिवर्तना पद्धति की सहायता लेनी चाहिये।
(४) अनुप्रेक्षा–सीखे हुए सूत्र के अर्थ का विस्मरण न हो जाय इस लक्ष्य से उस अर्थ का बारबार चिन्तन-मनन करना अनुप्रेक्षा है। यह शिष्य का दायित्व है कि वह सूत्र वाचना को ग्रहण करने के बाद तात्त्विक दृष्टि से उस पर गंभीर चिन्तन-मनन बार बार करता रहे ताकि उसका अर्थ विन्यास उसके मष्तिष्क में जम जाय। यह अनुप्रेक्षा की पद्धति बहुत महत्त्व की है क्योंकि किसी भी विषय पर जब बार-बार चिन्तन-मनन किया जाता है तो उस सूत्र या वाचना के अर्थ की गूढ़ता में प्रवेश होता जाता है एवं नवीन अर्थ की प्राप्ति होती रहती है।
(५) धर्मकथा-उपरोक्त चारों प्रकार से शास्त्र एवं अन्य ज्ञान का अभ्यास करने पर श्रोताओं को प्रवचन देना धर्मकथा है। सूत्र-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना एवं अनुप्रेक्षा के उपायों से सीखे हुए ज्ञान की परिपक्वता पैदा हो जाती है और ऐसा अनभव होने के बाद ही प्रवचन देना सार्थक हो सकता है। चिन्तन-मनन एवं आत्मनिर्णय के पश्चात् ही किसी तत्त्व का स्वरूप दूसरों को बताने पर श्रोताओं की जिज्ञासा को सम्यक् रीति से शान्त की जा सकती है। अधूरे ज्ञान के साथ व्याख्यान देना समुचित नहीं कहा गया है, क्योंकि उससे अज्ञान का प्रचार संभव है। धर्मकथा की इस प्रक्रिया की उपमा मधुमक्खियों की प्रक्रिया से दी जाती है। जैसे मधुमक्खी अपने विवेक से योग्य पुष्प देखकर उस पर बैठती है, उसका रस ग्रहण करती है और उस रस को पचा कर फिर अपने छत्ते में व्यवस्थित रखती है। ऐसा रस जब शहद रूप में लोगों को मिलता है तब वह आरोग्य प्रदायक होता है। इसी प्रकार एक शिष्य को न केवल सूत्र के शब्दों का सही उच्चारण करना आना चाहिये, बल्कि उन के अर्थ को जान कर अर्थ पर अपना गंभीर चिन्तन मनन करना चाहिये। मधुमक्खी द्वारा पुष्प चयन की तरह उसे श्रेष्ठ ग्रंथों का चयन करना चाहिये, उनसे ज्ञान का अपने मन मानस में एक धारा-प्रवाह बनाना चाहिये और भीतर ही भीतर आत्म विश्वास पैदा करना चाहिये कि वह उस विषय पर अधिकारपूर्वक प्रवचन दे सकता है। इस प्रकार की आत्मविश्वस्ति के पश्चात् ही वह व्याख्यान दे और श्रोताओं की शंका विशंकाओं का समुचित समाधान देने का सामर्थ्य पैदा करे।
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