________________
हित वाचना देना अर्थात् शिष्य की योग्यता के अनुसार मूल व अर्थ पढ़ाना एवं (द) निःशेष वाचना देना अर्थात् नय, प्रमाण आदि द्वारा व्याख्या करते हुए शास्त्र की समाप्ति पर्यन्त वाचना देना। (३) विक्षेपणा विनय-चार प्रकार (अ) धर्म नहीं जानने तथा सम्यक् दर्शन का लाभ नहीं लेने वाले को प्रेमपूर्वक सम्यक् दर्शन रूप धर्म दिखाकर सम्यक्त्वी बनाना। (ब) जो सम्यक्त्वी है, उसे सर्वविरति रूप चारित्र धर्म की शिक्षा देकर सहधर्मी बनाना। (स) जो धर्म से भ्रष्ट हों, उन्हें धर्म में स्थिर करना । (द) चारित्र धर्म की जैसे वृद्धि हो वैसी प्रवृत्ति करना ।
(४) भेद निर्धातन विनय-चार प्रकार (अ) मीठे वचनों से क्रोधी के क्रोध को शान्त करना। (ब) दोषी पुरुष के दोषों को दूर करना । (स) उचित कांक्षा को निवृत्त करना तथा (द) क्रोध, दोष, कांक्षा आदि में प्रवृत्ति न करते हुए आत्मा को सुमार्ग पर लगाना।
इस प्रकार के सुकृत्यों द्वारा आचार्य अपने शिष्य की विनीतता का ऋण चुकाता है।
विनय तप का उपर्युक्त विश्लेषण मुझे प्रेरित करता है कि मैं इस तप की विशुद्ध हृदय से आराधना करूं। मैं गरु सेवा में रहते हए अहंकार. क्रोध, छल तथा प्रमाद का त्याग करूं और गुरु को मन्द बुद्धि, अल्पवयस्क और अल्पज्ञ जानकर भी उनकी निन्दा न करूं, क्योंकि जो अविनी शिष्य गुरु की भारी आशातना करता है, वह मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। ज्ञान में न्यूनाधिक होने पर भी मैं सदाचारी और सद्गुणी गुरुजनों का अपमान नहीं करूं। कारण, आचार्य की आशातना करना जलती हुई आग पर पैर रखकर चलने के समान होता है। मैं अपने आचार्य को प्रसन्न रखने के लिये सदा प्रयत्नशील रहूं जिससे मुझे अनाबाध मोक्ष सुख की प्राप्ति हो। मैं अपना कर्तव्य समझू कि गुरुके पास आत्म विकास करने वाले धर्मशास्त्र की शिक्षा लूं, उनकी पूर्ण विनय भक्ति करूं, हाथ जोड़ सिर नंवा कर नमस्कार करूं तथा मन, वचन, काया से उनका सदा उचित सत्कार करूं। मैं आचार्य द्वारा प्रदत्त उपदेशों को सुनकर अप्रशत्त भाव से उनकी सेवा करूं तो अवश्य मुझे सद्गुणों की प्राप्ति होगी तथा एक दिन सिद्धि की भी प्राप्ति हो सकेगी।
मैं वीतराग देवों की वाणी को आत्मसात् करता हूं तो विनय तप के आचरण के प्रति अपार आस्था जागती है और जानता हूं कि धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका उत्कृष्ट फल । विनय से ही कीर्ति श्रुत और श्लाघा वगैरा सभी वस्तुओं की प्राप्ति होती है। संसार में विनीत स्त्री और पुरुष सुख भोगते हुए, समृद्धि-सम्पन्न तथा महान् यश कीर्ति वाले देखे जाते हैं। मैं भी विनय को अपनी समस्त वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में रमा लेना चाहता हूं। मैं अपनी शय्या, गति, स्थान और आसन आदि सब नीचे ही रखू, आचार्य को नीचे झुककर पैरों में नमस्कार करूं तथा नीचे झुककर विनयपूर्वक हाथ जोडूं। मैं गुरु के मनोगत अभिप्रायों तथा उनकी सेवा करने के सुमचित उपायों को नाना हेतुओं से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार जानकर समुचित प्रकार से उनकी सेवा करूं। मुझे आशा है, कि यदि गुरु की आज्ञानुसार चलूंगा तथा धर्म और अर्थ का ज्ञाता बनकर विनय में चतुर होऊंगा तो संसार रूप दुरुत्तर सागर को पार करके एवं कर्मों का क्षय करके उत्तम गति प्राप्त कर सकूँगा।
__ मैं आप्त-पुरुषों द्वारा उपदेशित विनीत के निम्न पन्द्रह लक्षणों का चिन्तन करते हुए अपने गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करने की भावना रखता हूं
(१) विनीत गरुजनों के सामने नमकर रहता है. नीचे आसन पर बैठता है, हाथ जोड़ता है और चरणों में धोक लगाता है।
३३८