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भेद—सावध, सक्रिय, सकर्कश, कटुक, निष्ठुर, कठोर (फरूस) आश्रवकारी, छेदकारी, भेदकारी, परितापनाकारी, उपद्रवकारी एवं भूतोपघातकारी। इनसे विपरीत प्रशस्त मन के भी बारह भेद होते है। (५) इसी प्रकार वचन विनय के भी प्रशस्त-अप्रशस्त के भी दो भेद तथा दोनों के क्रमशः बारह-बारह भेद से चौबीस भेद होते हैं। (६) काय विनय के भेद –प्रशस्त एवं अप्रशस्त । प्रशस्त काय विनय के सात भेद-सावधानी से गमन करना, ठहरना, बैठना, सोना, लांघना, बारबार लांघना तथा सभी इन्द्रियों व योगों की प्रवृत्ति करना। इसके विपरीत अप्रशस्त काय विनय के भी सात भेद जो सावधानी की जगह असावधानीपूर्वक होते हैं। (७) लोकोपचार विनय के सात भेद-अभ्यासवृत्तिता (गुरु आदि के पास रहना) परच्छन्दानुवर्तिता (गुरु आदि की इच्छा के अनुकूल कार्य करना) कार्य हेतु (गुरु के कार्य को पूर्ण करने का प्रयल करना) कृत प्रतिक्रिया (अपने लिये किये उपकार का बदला चुकाना) आर्त गवैषणा (बीमार साधुओं की सार-संभाल करना) देश कालानुज्ञता (अवसर देखकर कार्य करना) तथा सर्वार्थाप्रतिलोभना (सब कार्यों में अनुकूल प्रवृत्ति करना)।
इस प्रकार विनय को स्व-पर कल्याण की प्राप्ति का आधार एवं श्रेष्ठ तप मानकर जो विनय की प्रधान रूप से आराधना करता है, वह विनयवादी कहलाता है। विनयवादी ३२ प्रकार के होते है—देव, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, अधम, माता और पिता—इन आठों का मन, वचन, काया एवं दान रूप प्रकारों से विनय बत्तीस रूप में होता है। किन्तु जो एकान्त रूप से विनय को ही आधार मानकर विनयवादी कहलाना चाहता है, वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है क्योंकि विनय तप की प्रधानता भी एक अपेक्षा से कही जाती है, एकान्त रूप से नहीं। इसी प्रकार कोरी क्रिया ही सार्थक नहीं बनती –ज्ञान और क्रिया का सफल संयोग होना चाहिये। अतः विनयी साधक को अनेकान्तवादी दृष्टिकोण वाला एवं सम्यक् दृष्टि होना चाहिये।
आचार्य भी अपने विनयी शिष्य को चार प्रकार की प्रतिपत्ति सिखा कर उऋण होता है, जो निम्नानुसार विनय प्रतिपत्ति रूप कहलाती है
(१) आचार विनय–चार प्रकार -(अ) संयम समाचारी संयम के भेदों का ज्ञान करना, सत्रह प्रकार के संयम का स्वयं पालन करना तथा संयम में उत्साह देना व संयम में शिथिल होने वाले को स्थिर करना । (ब) तप समाचारी–तप के बाह्य और आभ्यन्तर भेदों का ज्ञान करना, स्वयं तप करना व तप करने वाले को उत्साह देना, तथा तप में शिथिल होते हों तो उन्हें स्थिर करना। (स) गण समाचारी-गण के ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि करते रहना, सारणा वारणा आदि द्वारा भलीभांति रक्षा करना, गण में स्थित रोगी, बाल, वृद्ध एवं दुर्बल साधुओं की यथोचित व्यवस्था करना। (द) एकाकी विहार समाचारी—एकाकी विहार प्रतिमा का भेदोपभेद सहित सांगोपांग ज्ञान करना, उसकी विधि को ग्रहण करना, स्वयं एकाकी विहार प्रतिमा को अंगीकार करना एवं दूसरे को ग्रहण करने हेतु उत्साहित करना। यह एकांकी विहार प्रतिमा पूर्व घर मुनि तथा क्षमा आदि यति धर्मों से सम्पन्न हो साथ ही अनुकूल प्रतिकूल परिषह उपसर्गों को सहन करने परिपक्क एवं स्थिर चित्त हो वह किसी भी परिस्थिति में सिद्धांत एवं सच्चरित्र निष्ठा से किंचित् भी विचलित न होने की सामर्थ्य वाला है, अतिशय ज्ञानी-मुनि की आज्ञा से ही प्रतिमा ग्रहण की जाती है, इससे विपरीत प्रवर्तन वाले ससरी किया (२) श्रुतविनय—चार प्रकार (अ) मूल सूत्र पढ़ाना (ब) अर्थ पढ़ाना (स)
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