________________
आभ्यंतर तप में बाह्य गौण भाव स्थान आत्म शुद्धि में सहायक है।
सकता ।
। एक दूसरे का परस्पर घनिष्ठ संबंध है उभय प्रकार के तप यथा शब्द श्रवण मात्र से एक दूसरे को उपेक्षित नहीं किया जा
प्रायश्चित से पाप शुद्धि
। मूलतः
प्रायश्चित — यह तपों के आभ्यन्तर वर्ग का पहला तथा पूरे क्रम में सातवां तप आभ्यन्तर तपों का सम्बन्ध आत्मा के भावों से जुड़ा रहता तथा इनका आचरण अधिकांशतः भीतर ही भीतर चलता है । प्रायश्चित दो शब्दों से मिल कर बना है— प्रायः अर्थात् पाप और चित्त का अर्थ है शुद्धि अर्थात् पापों से शुद्धि का नाम प्रायश्चित है और इस कारण यह आभ्यन्तर तप है । जिससे मूल गुण एवं उत्तर गुण विषयक अतिचारों से मलिन तथा अनादिकालीन पाप स्थानों से मलीन आत्मा अपनी आत्म शुद्धि करले – उसे प्रायश्चित तप कहा है। इस तप के अनुष्ठान से आत्मा के साथ संलग्न पाप रूपी मैल धुल जाता है तथा उसका स्वरूप शुद्ध हो जाता है ।
मैं सोचता हूँ कि यह प्रायश्चित का तप बड़ा प्रभावकारी होता है क्योंकि मनुष्य अनजाने में भी भूलें करता हैं तो जानकर भी भूलें करता हैं और उसका प्रमुख कारण होता है सांसारिक काम भोगों का आकर्षण। यह आकर्षण विविध रूप से कषायों को जगाता है और मनुष्य को प्रमादग्रस्त बनाता है। इस रूप में वह भूलें करता है किन्तु भूलें करके भी यदि वह बाद में शुद्ध हृदय से प्रायश्चित कर ले और आगे से वैसी भूलें न करने का संकल्प ले ले तो उसकी आत्म शुद्धि हो जाती है । शुद्धिकरण की इस प्रक्रिया में उसकी करणीयता बनी रहे तो वह पाप मुक्त हो सकता है। प्रमादवश किसी दोष के लग जाने पर उसे दूर करने के लिए जो आत्मालोचना एवं तपस्या विधि पूर्वक की जाती है, वही प्रायश्चित का तप है । इसके आठ भेद बताये गये हैं :
(१) आलोचना के योग्य अर्थात् जिन पापपूर्ण वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों की शुद्धि अपनी आलोचना के द्वारा हो जाय ।
(२) प्रतिक्रमण के योग्य अर्थात् जिनके उन पापपूर्ण वृत्ति प्रवृत्तियों को पुनः न दोहराने का (३) आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के न दोहराने का संकल्प दोनों करने हों ।
शुद्धि करण के लिए प्रतिक्रमण करना पड़े और संकल्प लिया जाय ।
योग्य अर्थात् उनके लिये आत्मालोचना एवं पुनः
(४) विवेक अशुद्ध भक्त पानादि परिठवने योग्य अर्थात् विवेक को अशुद्ध बनाने वाले खाद्य व पेय पदार्थों को परठा दिया जाय ।
(५) कायोत्सर्ग के योग्य अर्थात् देह मोह को सर्वथा विसार कर ध्यानावस्था में ठहरा जाय। (६) तप के योग्य अर्थात् उनके लिये प्रायश्चित तपश्चरण के साथ किया जाय ।
(७) दीक्षा पर्याय का छेद करने योग्य अर्थात् पापपूर्ण वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों की अशुभता ऐसी गहरी हो कि साधु के दीक्षा काल में दंडस्वरूप कमी की जाय ।
(८) मूल के योग्य अर्थात् फिर से महाव्रत लेने के योग्य । वह अशुभता अतिप्रगाढ़ हो जिससे साधुत्व ही समाप्त हो जाय। इसके दंड स्वरूप जो प्रायश्चित लिया जाता है वह नई दीक्षा के रूप में लिया जाता है ।
३३३