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है. इसका ज्ञान दाता को होता नहीं है, जिससे स्वाभाविक तौर पर ही अभिग्रह की पूर्ति हो तो मुनि भिक्षा ग्रहण करते हैं। अभिग्रह की पूर्ति होगी या नहीं अथवा कब होगी इसकी कोई निश्चितता नहीं रहती। इस रूप में भिक्षा चर्या के तप में बहुत बड़े त्याग भाव की अपेक्षा रहती है।
मच्छ की उपमा से भिक्षा लेने वाले भिक्षुक के पांच प्रकार बताये गये हैं—(१) अनुस्तोतचारी-अभिग्रह विशेष के साथ उपाश्रय के समीप से प्रारंभ करके क्रम से भिक्षा लेना। (२) प्रतिस्रोतचारी -अभिग्रह विशेष के साथ उपाश्रय से बहुत दूर जाकर लौटते हुए भिक्षा लेने वाला। (३) अन्तचारी-क्षेत्र के पास में अर्थात् अन्त में भिक्षा लेने वाला। (४) मध्यचारी क्षेत्र के बीच-बीच के घरों से भिक्षा लेने वाला । तथा (५) सर्वस्रोतचारी सर्व प्रकार से भिक्षा लेने वाला।
वीतराग देवों ने सच्चा भिक्षुक (साधु) उसको कहा है जो तपश्चर्या और सहिष्णुता के साथ आत्म-विकास साधता है। भिक्षा के सम्बन्ध में वह अपने पूर्वाश्रम के सम्बन्धियों में आसक्ति न रखते हुए अज्ञात घरों से भिक्षावृत्ति करके आनन्द पूर्वक संयम धर्म का पालन करता है। वह किसी भी वस्तु में मूर्छा भाव नहीं रखता है तथा परिषहों व उपसर्गों को शान्तिपूर्वक सहन करता है। अपने लिये आवश्यक शय्या (घासफूस) पाट, आहार, पानी अथवा अन्य कोई खाद्य और स्वाद्य पदार्थ गृहस्थ के घर में मौजूद हो किन्तु उसके द्वारा उन पदार्थों की याचना करने पर यदि वह नहीं दे तो सच्चा भिक्षुक उसको जरा भी द्वेषयुक्त वचन न कहे और न अपने मन में बुरा ही माने क्योंकि मुनि को मान और अपमान दोनों में समान भाव रखना चाहिये। वह गृहस्थों से आहार, पानी, खादिम, स्वादिम जो भी पदार्थ प्राप्त करे, उन्हें पहले अपने साथी साधुओं में बांटे और बाद में मन, वचन व काया को वश में रखते हुए स्वयं आहार करे। गृहस्थ के घर से ओसाचण, पतली दाल, जौ का दलिया, ठंडा भोजन, जौ या कांजी का पानी आदि आहार प्राप्त कर जो भिक्षुक उसकी निन्दा नहीं करता और सामान्य स्थिति के घरों में भी जाकर भिक्षावृत्ति करता है, वही सच्चा भिक्षुक होता है, क्योंकि साधु को अपने संयमी जीवन के निर्वाह के लिये ही आहार आदि ग्रहण करना चाहिये, जिह्वा की लोलुपता शान्त करने के लिये नहीं। भिक्षाचर्या के तप की आराधना में श्रेष्ठ समभाव की आवश्यकता होती है तो तप की सफल आराधना से समभाव का उत्कृष्ट रूप निखरता जाता है।
मात्र जीने के लिये खाना संयम की साधना का साध्य मैं मानता हूं आत्म विकास एवं स्व-पर कल्याण और इस संयम को साधने का साधन रूप होता है शरीर। इस दृष्टि से शरीर जिस रीति से संयम धर्म का साधन बना रहे, उसी रीति का उसका पोषण होना चाहिये। ऐसा पोषण नहीं कि वह किसी भी रूप में अधर्म का साधन बने। अतः रस परित्याग का चौथे प्रकार का तप यह निर्देश देता है कि देह में विकार पैदा करने वाले दध, दही, घी आदि विगयों तथा उनसे बनाये जाने वाले स्निग्ध एवं गरिष्ठ खाद्य पदार्थों का त्याग किया जाय । खाना बिल्कुल सादा, बल्कि रूखा-सूखा हो। खाने के लिये जीने को लिप्सा तो कतई होनी ही नहीं चाहिये—मात्र जीने के लिये खाने का भाव होना चाहिये।
अतः जिह्वा के स्वाद को छोड़ना रसपरित्याग का तप है। सामान्यतः इसके नौ भेद कहे गये हैं -
(१) प्रणीत रस परित्याग–जिसमें घी दूध आदि की बूंदें टपक रही हों ऐसे आहार का त्याग करना।
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