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भावनाओं को परास्त करें तथा अच्छी भावनाओं को जीवन में स्थान दे। तब शत्रु कोई नहीं रहेगा
और संसार के समस्त के समस्त जीव मित्र महसूस होंगे। जो बुरी भावनाओं के समस्त शत्रुओं को जीत लेता है, वही तो अरिहंत कहलाता है। अरिहंत बनना ही तो भव्य आत्मा का साध्य है अतः मित्र-शत्रु भेद को सम्यक् रीति से समझ लेना उसके लिये अनिवार्य है।
(८) सबल-दुर्बल—यह भी सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने योग्य विषय है कि बल किसे कहते हैं और वह कहाँ रहता है ? बिना यथार्थ तत्त्व ज्ञान के मनुष्य झट से कह सकता है कि बल शरीर का होता है, धन का होता है, सत्ता और पद का होता है, परिवार या कुल का होता है अथवा राज्य और सेना का होता है किन्तु यह उसकी स्थूल विचारणा होती है। वह जब अपनी आत्मा को बली बना लेता है और आत्म बल की शक्ति का अनुभव करता है तब उसके सामने ये सारे बल तुच्छ हो जाते हैं। वह इनमें से या ऐसे किसी बल से भयभीत नहीं होता। अतः प्रमुख होता है आत्मबल और इस बल से जो संयुक्त है वह सबल तथा इस बल से हीन दुर्बल होगा। अन्य बलों से संयुक्त होने पर मनुष्य क्रूर बनता है किन्तु आत्म बल से सबल बनने पर वह दया का सागर हो जाता है।
(E) धनी-निर्धन—इसी प्रकार आत्म-जागरण ही सबसे बड़ा धन होता है और आत्म जागृत ही धनी तथा आत्म मूर्छित ही निर्धन होता है। अतः आत्मा का स्वरूप दर्शन ही अतुलनीय धन कहा गया है।
(१०) भोजन-जीवन आत्मां एवं शरीर के संयोग से बनता है तथा जीवन चलाने के लिये भोजन अनिवार्य होता है। भोजन शरीर के लिये भी चाहिये और आत्मा के लिये भी चाहिये । शरीर का भोजन इस रूप में संयत और सन्तुलित हो कि वह धर्माराधना मे कार्य रत बने । ऐसा कार्योद्दीपक नहीं कि वह उन्मार्ग पर इन्द्रिय सुख में भटकता फिरे । जब शरीर को सही भोजन दिया जाता है तब आत्मा को भी उस का सही भोजन मिलता है और यह भोजन होता है त्रिविध योग व्यापार का संयम एवं ज्ञानार्जन । इस प्रकार का भोजन जीवन को स्वस्थ और सुखद बनाता है।
(११) औषधि-भोजन के समान ही औषधि (दवा) का स्वरूप भी समझना चाहिये। औषधि शरीर के स्वास्थ्य को बनाये रखने वाली तो भाव रूप औषधि आत्मा की स्वस्थता को बढ़ाने वाली होनी चाहिये।
(१२) स्थावर–त्रस-चलने फिरने वाले जीवों की जानकारी तो सामान्य रूप से हो जाती है किन्तु स्थावर जीवों (न चलने फिरने लायक) की जानकारी इस कारण ज्यादा जरूरी है कि उनकी रक्षा के प्रति मनुष्य की सावधानी रहे और उसकी दया उन तक विस्तृत बने ।
(१३) पशु-पक्षी—मनुष्य चूंकि अति विकसित शक्तियों का धनी होता है अतः उसे अबोले पशुपक्षियों के प्रति भी दयावान् होना चाहिये।
इन ज्ञेय तत्त्वों के सम्पर्क से ऐसे तत्त्वों का प्रकटीकरण होता है जिन्हें ग्रहण न करने या ग्रहण करने की अवधारणा बनानी चाहिये। पहले इस दृष्टि से हेय तत्त्वों का मुख्य विवरण दिया जा रहा है
(१) काम-विषयेच्छा और इन्द्रिय-भोग सांसारिकता की जड़ें हैं। काम लिप्तता आत्मा को विकारी बनाती है क्योंकि काम से ही क्रोध व अन्य कषायों की उत्पत्ति होती है अतः काम का त्याग मूल त्याग बन जाता है जिसकी नींव पर सम्पूर्ण त्याग का भव्य प्रासाद निर्मित होता है। २७०