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उपवास से लेकर छः मास तक का होता है । (२) प्रतर तप — श्रेणी को श्रेणी से गुणा करना प्रतर है । प्रतर युक्त तप प्रतर तप कहलाता है । जैसे, उपवास, बेला, तेला और चौला इन चार पदों की श्रेणी होती है। श्रेणी को श्रेणी से गुणा करने पर सोलह पद होते हैं । प्रतर का आयाम विस्तार (लम्बाई चौड़ाई) में बराबर होता है । प्रतर की स्थापना की विधि इस प्रकार है - प्रथम पंक्ति में एक दो तीन चार रखना । दूसरी पंक्ति दो से आरंभ करना और तीसरी व चौथी क्रमशः तीन व चार से आरंभ करना । इस प्रकार रखने में पहली पंक्ति पूरी होगी और शेष अधूरी रहेगी। जिन्हें यथायोग्य आगे की संख्या और फिर क्रमशः बची हुई संख्या रख कर पूरी करना चाहिये । स्थापना यह है— १, २, ३, ४, (२) २, ३, ४, १ (३) ३, ४, १, २ तथा (४) ४, १, २, ३ । (३) घन तप - प्रतर को श्रेणी से गुणा करना घन है। यहाँ सोलह को चार से गुणा करने पर आई हुई चौसठ की संख्या घन है। घन से युक्त तप घन तप कहलाता है । ( ४ ) वर्ग तप - घन को घन से गुणा करना वर्ग है। यहाँ चौसठ को चौसठ से गुणा करने पर आई हुई ४०६६ की संख्या वर्ग है । वर्ग से युक्त तप वर्ग तप कहलाता है । (५) वर्ग-वर्ग तप-वर्ग को वर्ग से गुणा करना वर्ग वर्ग है । यहाँ ४०६६ को ४०६६ से गुणा करने पर आई हुई १६७७७२१६ की संख्या वर्ग वर्ग है । वर्ग-वर्ग से युक्त तप करना वर्ग- वर्ग तप कहलाता है। (६) प्रकीर्ण तप-श्रेणी आदि की रचना न कर यथाशक्ति फुटकर (छुटक) तप करना प्रकीर्ण तप है। नवकारसी से लेकर यवमध्य, वज्रमध्य, चन्द्रप्रतिमादि सभी प्रकीर्ण तप हैं ।
एक अन्य अपेक्षा से अनशन तप के बीस भेद भी बताये गये हैं । इत्वरिक के १४ भेद - (१) चतुर्थ भक्त (२) षष्ठ भक्त (३) अष्टम भक्त (४) दशम भक्त (५) द्वादश भक्त (६) चतुर्दश भक्त (७) षोड्शभक्त (८) अर्धमासिक (६) मासिक (१०) द्वैमासिक (११) त्रैमासिक ( १२ ) चातुर्मासिक (१३) पंच मासिक तथा (१४) षाण्मासिक एवं यावत्कथिक के ६ भेद – (१) पादोपगमन ( २ ) भक्त प्रत्याख्यान (३) इंगित मरण तथा इनके निहारी और अनिहारी के भेद से छः भेद हो जाते हैं।
यावत्कथिक अनशन तप (संथारा) के अन्तर्गत आहार का त्याग करके अपने शरीर के किसी अंग को किंचिन्मात्र भी न हिलाते हुए निश्चल रूप से संथारा करना पादोपगमन कहलाता है । पादोपगमन के दो भेद हैं- ( १ ) व्याघातिम - सिंह, व्याघ्र तथा दावानल (वन की आग) आदि का उपद्रव होने पर जो संथारा ( अनशन) किया जाता है वह व्याघातिम पादोपगमन संथारा कहलाता है । (२) निर्व्याघातिम- जो किसी भी उपद्रव के बिना स्वेच्छा से संथारा किया जाता है, वह निर्व्याघातिम पादोपगमन संथारा कहलाता है। दूसरे, भक्त-प्रत्याख्यान यावत्कथिक अनशन तप का अर्थ होता है चार अथवा तीन प्रकार के आहार का त्याग कर लेना । और इसी अवस्था में भक्त-परिज्ञा मरण यावत्कथिक अनशन तप भी होता है। इसके तीसरे भेद इंगित मरण के अनुसार दूसरे साधुओं से सेवा सुश्रूषा न करवाते हुए नियमित प्रदेश की सीमा में रहकर संथारा करना होता है। ये तीनों भेद निहारी और अनिहारी रूप होते हैं । निहारी संथारा ग्रामनगर के अन्दर किया जाता है तथा अनिहारी संथारा ग्राम-नगर से बाहर किया जाता है। जिस मुनि का मरण ग्राम-नगर : में हुआ हो और उस के मृत शरीर को ग्राम-नगर से बाहर ले जाना पड़े तो वह निहारी मरण कहलाता है । ग्रामनगर के बाहर किसी पर्वत की गुफा आदि में जो मरण हो वह अनिहारी मरण कहलाता है।
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