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यावत्कथिक अनशन के काम चेष्टा की अपेक्षा से दो भेद हैं—(१) सविचार-काया की क्रियासहित अवस्था तथा (२) अविचार-निष्क्रिय। दूसरी अपेक्षा से दो भेद इस प्रकार हैं-(१) सपरिकर्म–संथारे की अवस्था में दूसरे मुनियों से सेवा लेना तथा (२) अपरिकर्म –सेवा की अपेक्षा नहीं रखना।
____ मैं सबसे पहले क्रम पर रखे गये इस अनशन तप के स्वरूप पर ही जब चिन्तन करता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि कितना उत्कृष्ट एवं कष्ट साध्य स्वरूप है इसका ? सामान्य जन को एक उपवास भी कठिन लगता है जबकि उपवासों की श्रेणियों, प्रतरों आदि की गुणात्मक आराधना के लिये तो प्रखर आत्म-बल की आवश्यकता होती है। यों भूखा रहना भी आसान नहीं होता है इसी कारण नीति में कहा गया है कि बुभुक्षित (भूखा) पुरुष क्या क्या पाप नहीं कर डालता है। ऐसी दशा में इच्छापूर्वक भूखा रहना और इन्द्रियदमन करना वस्तुतः टेढ़ी खीर है। यह विचार उठ सकता है कि जब पहले तप का ही यह काठिन्य है तो आगे के तपों की आराधना कितनी कठिन होगी, किन्तु कठिनता और सरलता की समझ मनोदशा के अनुरूप होती है। मैं मानता हूँ कि यदि इरादा मजबूत हो तो दूसरों को कठिन समझ में आने वाला काम भी मजबूत इरादे वाले को आसान लगता है। इसके विरुद्ध अगर इरादा ढिलमिल रहता है तो हकीकत में आसान काम भी उस के लिए कठिन बन जाता है। फिर तपश्चरण तो वस्तुतः ही कठिन होता है। जीवितावस्था में अनशन तथा रणकाल में भी अनशन याने संथारा-तब कहीं पहले तप की सफल आराधना बन पड़ती है।
____ मैं सोचता हूँ कि जो साधक अपने जीवन में तथा मरण में अनशन व्रत की ही सफल साधना कर लेता है, वह अपनी आत्मा को तपा डालता है और अपने मरण को पंडित मरण बना लेता है।
अल्पता बोधक तपस्या अल्पता बोधक तपस्या ऊनोदरी होती है कि जिसका जितना आहार है उससे कम आहार करना अर्थात् भूख से कम खाना। भूख से कम खाने की कठिनाई अपनी ही तरह की होती है। मैं सोचता हूँ कि यदि मैं उपवास का प्रत्याख्यान कर लं तो मन में शान्ति आ जाती है कि आज मझे भोजन करना ही नहीं है भोजन की लोलपता सताती नहीं। किन्त खाना खाने बैठं भी और खाऊं भी लेकिन भख से तप्ति न लं- तप्ति के पहले ही खाना बन्द कर दं यह स्थिति हकीकत में उपवास की अपेक्षा कठिनतर होती है। खाना खाना शुरू कर देने पर विभिन्न व्यंजनों का स्वाद अनुभव में आता है तो खाने से सम्बन्धित लोलुपता भी उत्तेजित हो जाती है, वैसी अवस्था में तृप्ति के छोर तक पहुंचने से पहले ही अपने को रोक लेना अधिक निरोध शक्ति की अपेक्षा रखता है। मैं समझता हूं कि ऊनोदरी तप की वास्तविक आराधना से ही इस सत्य का सही अनुभव हो सकता है।
ऊनोदरी की तपस्या आहार के सम्बन्ध में ही अल्पता बोधक नहीं है अपितु उपकरणों के सम्बन्ध में भी अल्पता बोधक है। आहार के समान ही आवश्यक उपकरणों से कम उपकरण रखना भी ऊनोदरी तप है। आहार तथा उपकरणों में आवश्यकता से भी कमी करना इस ऊनोदरी तप का द्रव्य रूप है तो इसका भाव रूप यह होगा कि क्रोध आदि कषायों को मंद एवं अल्प किया जाय।
इस रूप में ऊनोदरी तप के प्राथमिक दृष्टि से दो भेद हुए (१) द्रव्य ऊनोदरी एवं (२) भाव ऊनोदरी । द्रव्य ऊनोदरी के दो भेद बताये गये हैं—(१) उपकरण द्रव्य ऊनोदरी तथा (२) भक्त
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