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है कि देह शुद्धि हो और आभ्यन्तर तप का उद्देश्य आत्मशुद्धि है। दोनों स्थानों में शुद्धि का अर्थ है कि सांसारिक विषय-कषायों का मैल साफ हो जाय । देह का यह मैल तब तक साफ नहीं होता जब तक कि शारीरिक शक्ति उन भोगों को भोगने में लगी रहती है, अतः उनसे विरत होने के लिए बाह्य तप का सेवन किया जाता है ताकि अशुभता में लगने वाली देह की तथा उसके माध्यम से इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाय । देह शुद्धि के साथ-साथ आत्म शुद्धि का कार्य भी चलता रहना चाहिये। आभ्यन्तर तपों का आचरण भीतरी विचारों का मैल साफ करता है। वृत्तियों की शुद्धि के साथ प्रवृत्तियों की शुद्धि एवं प्रवृत्तियों की शुद्धि से वृत्तियों की शुद्धि का क्रम तपाचरण से क्रमशः चलता रहना चाहिये। इस शुद्धि क्रम में आत्मा एवं देह की पृथकता का बिन्दु इस कारण से महत्त्वपूर्ण है कि सामान्य रूप से मनुष्य का अपनी देह पर अत्यधिक ममत्त्व होता है। यहाँ तक कि वह कई बार देह को ही 'स्वयं' मानकर चलने लगता है तथा देह के सुख के लिए सभी प्रकार के कार्य-अकार्य करने पर उतारू हो जाता है। अतः इस बिन्दु की स्पष्टता के बाद उसकी यह धारणा बन जानी चाहिये कि देह वह 'स्वयं' नहीं है, वह 'स्वयं' तो आत्मा है। इस कारण देह उससे पृथक है। और इसी कारण देह का पोषण आत्मा का पोषण नहीं है, बल्कि स्थिति इसके एकदम विपरीत है। देह का पोषण कम किया जायेगा—उस पर से अपने ममत्त्व को घटाया जायेगा, तभी वास्तविक रूप से आत्मा का पोषण प्रारंभ होगा। देह मोह जितने अंशों में मिटेगा, उन्हीं अंशों में आत्म स्वरूप की विशेष रूप से अनुभूति होगी। यही आत्मानुभूति तथा उसकी परिपुष्टता तपाराधन का प्रधान लक्ष्य
जब मैं भली भांति यह समझ लूंगा कि मैं देह नहीं हूँ, अपितु आत्मा हूँ तथा देह एक रूप से आत्मा के लिए बंधन है जो कामणि देह के रूप में आत्मा को बांधे रखती है तथा इसी के फलस्वरूप आत्मा बार-बार भिन्न-भिन्न देहों के चोले में बंधती है, तभी मेरा देह-मोह घट और मिट सकेगा। बाह्य प्रकार के तप इसी देह मोह को क्षीणतर करते रहने के अनुष्ठान है। देह मोह की क्षीणता के बाद ही आत्मस्वरूप की अनुभूति प्रबल बनती है, जो आभ्यन्तर प्रकार के तपाचरण से प्रबलतर होती हुई चली जाती है।
मैं यह भी मानता हूँ कि इस रूप में समग्र तपश्चरण की कठोरता ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों कार्मण शरीर टूटता जाता हैं याने कि कर्मक्षय का क्रम चल जाता है। तपश्चरण सम्पूर्ण कर्म क्षय का आधार शास्त्र है। मैंने नव तत्त्वों के स्वरूप-विश्लेषण से जाना है कि बंध तत्त्व जहाँ आश्रव तत्त्व के द्वार से कर्मों का आगमन और बंध कराता है, वहाँ संवर तत्त्व की आराधना बाहर से आने और बंधने वाले कर्मों को रोक देती है। तब समस्या रह जाती है पूर्व संचित कर्मों को नष्ट करके आत्मा को सम्पूर्ण स्वरूप से निर्मल बना लेने की। यह निर्जरा तत्त्व होता है जिसकी साधना से पूर्वोपार्जित कर्म नष्ट किये जाते हैं। यह निर्जरा की साधना ही तपाराधना है।
इस रूप में तप के बाह्य छः एवं आभ्यन्तर छः कुल बारह प्रकार क्रमशः निम्नानुसार होते
(१) अनशन (२) ऊनोदरी (३) भिक्षाचर्या (४) रस परित्याग (५) कायाक्लेश (६) प्रतिसंलीनता (७) प्रायश्चित (८) विनय (६) वैयावृत्य (१०) स्वाध्याय (११) ध्यान तथा (१२) व्युत्सर्ग।
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