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में रखते हुए नीतिपूर्वक अर्थ का अर्जन करते हैं। इस रूप में अर्जित अर्थ (धन) उनकी लालसाओं
और कामनाओं को भड़काता नहीं है तथा सन्तोष की भावनाओं को स्थिर रूप से बनाये रखता है जिससे वे इस लोक में भी स्व-पर कल्याण साधते हैं तथा परलोक में भी सद्गति को प्राप्त करते हैं। न्याय और नीति से कमाया हुआ धन दो प्रकार से अर्जन करने वाले को लाभ पहुंचाता है। पहला तो यह कि उसकी उस प्रकार के धन में कोई आसक्ति नहीं होती जिसके कारण वह उसको अपने भोग विलास में खर्च करके पाप कर्म का बंध नहीं करता। दूसरे, धर्म भाव के साथ अर्जित किए हुए धन का व्यय भी वह सदा सत्कार्यों में ही करना चाहता है जिसके परिणाम स्वरूप धर्म भाव की ही अभिवृद्धि होती है। जो गृहस्थ अन्याय और अनीति से अर्थोपार्जन करते हैं, वे धनलिप्सु बनकर क्रूरकर्मी भी बन जाते हैं। उनका धन अपने ही स्वार्थ पोषण में लगता है जिससे जीवन में विकृति बढ़ती है। कई बार तो धन-मोह इतना अंधा बन जाता है कि वह कृपण भाव से उसका अपने या अपनों के लिये भी व्यय नहीं कर पाता है। अतः धर्म-पुरुषार्थ को पहले सफल बनाया जाना चाहिये। इसके प्रभाव से अर्थ-पुरुषार्थ भी सफलता प्राप्त करता है। वैसी अवस्था में यह अर्थ पुरुषार्थ स्व-पर कल्याण का कारण भूत बन जाता है तथा सामाजिक वातावरण में भी न्याय और नीति की अभिवृद्धि करके सभी प्राणियों में सदाशय एवं सौहार्द्र का संचार करता है।
(३) काम—मनोज्ञ विषयों की प्राप्ति के द्वारा इन्द्रियों का तृप्त होना काम है। सांसारिक वातावरण में गहराई से देखा जाय तो अर्थ और काम के क्षेत्र में जितना अनर्थ होता है उतना कहीं
और नहीं, क्योंकि अमर्यादित एवं स्वच्छन्द अर्थोपार्जन तथा कामाचार की वृत्ति-प्रवृत्ति के साथ ही विविध प्रकार के अन्याय एवं अत्याचार जन्म लेते हैं तथा हिंसक रूप ग्रहण करके मानवीय मूल्यों के विघातक बन जाते हैं। यों देखें तो अर्थ एवं काम सांसारिकता की मूल आवश्यकताएँ भी हैं और जिनका सब प्राणियों के लिये त्याग संभव नहीं है। ये शरीर की मुख्य संज्ञाएँ होती हैं। आवश्यक है तो यह कि अर्थ और काम के क्षेत्रों में ऐसी सुव्यवस्था की रचना की जाय कि व्यक्तिगत प्रलुब्धता बढ़ने न पावे और इन क्षेत्रों में आत्म-संयम का अटल अस्तित्व बन जाय। आज संसार की विषम समस्याओं का तलस्पर्शी ज्ञान लिया जाय तो प्रमुख रूप से रोटी और सेक्स की समस्याएँ ही अधिकांशतः दिखाई देगी। इन समस्याओं को सदा ही अनुभव किया जाता रहा है तथा सम्यक् समाधान भी निकाले जाते रहे हैं। अर्थ और काम स्वच्छन्द व अमर्यादित रूप न ले सकें इसी दृष्टि से अर्थ और काम रूप पुरुषार्थों को विकासकारी बनाने के उद्देश्य से ही धर्म पुरुषार्थ को सबसे पहले रखा गया है। धर्म पुरुषार्थ के सफल होने का अभिप्राय यह लिया गया है कि मनुष्य की सकल वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों में धार्मिकता एवं नैतिकता का सद्भाव फैल जायगा और तब अर्थ एवं काम के क्षेत्र में जो भी प्रवृत्तियाँ की जायगी, वे धर्म रंग में रंगी हुई होने के कारण पुरुषार्थ नाम से भी जानी जायगी और वे अर्थ व काम के सत्प्रयोजन से पुरुषार्थ की सफलता के रूप में भी सिद्ध हो जायगी। धर्म सहित अर्थ और धर्म सहित काम आत्मा को अधोगामी कभी नहीं बनायगा।
(४) मोक्ष–रागद्वेष द्वारा उपार्जित कर्मबंधन से आत्मा को स्वतन्त्र करने के लिये संवर और निर्जरा में उद्यम करना मोक्ष परुषार्थ है। परुषार्थ का परम प्रयोग मोक्ष प्राप्त करना है। इन चारों पुरुषार्थों में भी मोक्ष ही परम पुरुषार्थ माना गया है। जो मोक्ष की परम उपादेयता स्वीकार करते हुए भी मोह की प्रबलता के कारण उसके लिये उचित प्रयत्न नहीं करते अथवा कर नहीं सकते, वे धर्म, अर्थ और काम के पुरुषार्थों में अविरुद्ध रीति से उद्यम करते हैं, वे मध्यम पुरुष
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