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व्यक्तिगत स्वामित्त्व की लालसा घट जायगी और निर्वाह के स्तर में समानता का प्रवेश होगा। यह परिवर्तन बाहरी सामाजिक नीतियों के प्रभाव से भी आयगा तो भीतरी वृत्तियों का भी परिणाम होगा, बल्कि बाहर से भीतर और भीतर से बाहर दोनों ओर से परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहेगी।
मेरा अनुमान है कि इस प्रक्रिया के बाद जब परिवर्तित वातावरण स्थिरता ग्रहण कर लेगा तो सामूहिक रूप से सारे समाज में एक नया ही भावनात्मक बदलाव दिखाई देगा और यह बदलाव होगा समभाव के पक्ष में। समान अवसर एवं समान स्तर की परिस्थिति में सबके बीच समभाव का जागरण भी अवश्यंभावी बन जायगा। यह समभाव जिस वेग से सर्वत्र फैलता जायगा, उसी वेग से मानवीय मूल्यों की प्रखरता भी प्रदीप्त होती जायगी।
___ मैं उस समाज की कल्पना करता हूँ जिसका मूलाधार समता पर टिका हुआ हो। व्यक्ति समभाव से आप्लावित होकर समदष्टि बने तथा अपने समग्र आचरण को समता के पक्के सांचे में ढाल दे। सामाजिक शक्तियों की भी कार्य-दिशा यह हो कि वे उत्थानोन्मख व्यक्ति को सन्दर धरातल प्रदान करें और जब उसके चरण लड़खड़ाने लगें, उसको सदाशयता के सम्बल से पुनः गतिशील भी बना दें। इसी रूप में सर्वत्र समभाव का जागरण एक साकार रूप ले. सकता है।
समभाव के गूढार्थ को हृदयंगम करते हुए मैं पुरुषार्थ करना चाहूंगा कि मैं सब प्राणियों के प्रति अपने समान विचार रखू, अपने समान देखू तथा अपने को प्रिय या अप्रिय लगे उसी प्रकार दूसरों को प्रिय लगने वाला व्यवहार उनके साथ करूं एवं अप्रिय लगने वाला व्यवहार न करूं। मैं अपने लिये प्रिय अथवा अप्रिय, सम्पत्ति या विपत्ति, सुख या दुःख दोनों प्रकार की स्थितियों में भेद नहीं करूं तथा समान भाव रखू। किसी को भयभीत नहीं करूं तथा किसी से भय भी नहीं खाऊं। किसी वस्तु के लाभ पर न तो मैं गर्व करूं और न किसी हानि पर खेदग्रस्त बनूं। किसी भी संकट के सामने में विचलित नहीं होऊं और अपने समतामय आचरण को नहीं त्यागू। समभाव की दृष्टि से मैं अपने अन्तर्हदय को निरन्तर जांचता परखता रहं और उस सम्बन्ध में किसी भी दोष
पको प्रविष्ट नहीं होने दूं। अपने ज्ञान, तप एवं आचरण की अभिवृद्धि के साथ मैं समभाव को परिपुष्ट करता रहूं। सुख-दुःख के अनुभवों में समभाव रखते हुए मैं राग द्वेष की कलुषितता से भी दूर रहूं और अपने मध्यस्थ भाव द्वारा दूसरों को भी समभाव की तरफ आकृष्ट करूं। अभिलाषाओं के आवेग में अथवा जीवन-मरण की कामना में फंस कर मैं कभी भी अपने मन, वचन तथा कर्म की साम्यता को आघात नहीं पहुँचाऊं। मैं विश्व के समस्त प्राणियों के साथ समभाव बनाऊं तथा अपने उदाहरण के आदर्श से उनमें भी समभाव जगाऊं।
___ मैं मानता हूँ कि समभाव के इस जागरण के लिये त्याग भाव के विकास की अपेक्षा रहती हैं। त्याग स्व-कल्याण के लिये और त्याग पर-कल्याण के लिये। वास्तविक त्याग किसे कहते हैं ? वस्तुतः वही त्यागी कहलाता है जो मनोहर और प्रिय भोगों के उपलब्ध होने पर भी स्वाधीनतापूर्वक उन्हें पीठ दिखा देता है याने कि छोड़ देता है। जो पराधीनता के कारण विषयों का उपभोग नहीं कर पाते, उन्हें त्यागी नहीं कहा जा सकता। मूल बात यह कि यथार्थ रूप में त्याग के साथ त्याग की स्वतन्त्र एवं उच्च भावना भी होनी चाहिये। भावहीन त्याग महत्त्वपूर्ण नहीं होता। त्याग-भाव के दृढ़ बनने पर सेवा और साधना की वृत्ति पनपेगी जिसका मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा के सत्कार्य में सदुपयोग किया जा सकता है। एक साधक को सुख-सुविधा की भावना से निरपेक्ष रहकर उपशान्त
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