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मैं जानता हूँ कि मैं तप में तमूंगा तो मेरी आत्मा तपेगी और मल रहित होकर निर्मलता का वरण करती जायेगी कर्म बंधनों को तोड़ती हुई हलुकर्मी बनती जायेगी। मैं तप से तपूंगा तो मेरा शरीर तपेगा जो कृश होता जाकर भी दिव्य ओज को अपने भीतर समाता जायेगा। मैं तप से तपूंगा तो मेरे मन तथा मेरी इन्द्रियों की समस्त सक्रियता स्व-पर कल्याण में नियोजित हो जायेगी। तप मेरी आत्मा में परमात्मा बन जाने का सामर्थ्य जगा देगा। और इस रूप में यह तप ही अपनी प्रखरता की उच्चतम साधना में मुझे सच्ची अनुभूति दे सकेगा कि मैं परम प्रतापी हूँ, सर्वशक्तिमान् हूँ।
तप और उसकी ऊर्जा शक्ति तप क्या होता है ? उसकी ऊर्जा शक्ति कैसी होती है ? यह सब मैं जानता हूँ वीतराग देवों की वाणी से जिसे सुगुरु मुझे समझाते हैं। कहा गया है कि तप रूप अग्नि है। जीवात्मा अग्नि का कुण्ड है। मन, वचन और काया के शुभ व्यापार तप रूप अग्नि को प्रदीप्त करने के लिये घी डालने की कुड़छी के समान और यह शरीर कंडों के समान है। कर्म रूप लकड़ी है और संयम रूप साधना शान्ति-पाठ रूप है। इस प्रकार मैं ऋषियों द्वारा प्रशंसित चारित्र रूप भाव होम करता हूँ। यह होम ही तप है और उसकी ऊर्जा शक्ति है आत्म शक्ति।
यों तप की व्याख्या बहुत ही व्यापक होती है। आत्म विकास एवं त्याग के उच्चस्थ स्तरों पर मन, वाणी एवं कर्म की त्रिधारा ही तपोःपूत हो जाती है क्योंकि आत्मा और शरीर दोनों ही तप से तपकर तेज से निखर उठते हैं। तप का मूल मानें तो वह है इच्छाओं का निरोध । आकाश के समान ये अनन्त इच्छाएँ इस संसार में आत्मा को चैन से नहीं रहने देती। इच्छाओं का वेग बड़ा प्रबल होता है। इस वेग को रोक लेना और इच्छाओं का निरोध कर देना अतुल्य तप माना गया है। यही कारण है कि कपिल ब्राह्मण ने इच्छाओं के वेग में भटकते हुए जब भावनापूर्वक उस वेग को ही नहीं रोका बल्कि इच्छाओं का ही रूपान्तरण कर दिया तो उसके उस महान् तप के कारण कुछ ही पलों में वह कपिल केवली हो गया। उसने और कोई तप नहीं किया, केवल इच्छाओं का निरोध किया तथा वह इतनी सघन रीति से कि कुछ ही पलों के उच्चतम तप ने उसे मुक्तिगामी बना दिया।
इच्छाओं का निरोध संशोधन एक क्लिष्ट और विशिष्ट तप है। मूल में आत्म-विवेक जितने अंशों में जागृत रहता है, उतने ही अंशों में तप के किसी प्रकार का अनुष्ठान कर्म क्षय का कारण भूत बनता है। कर्मों के नित्य प्रति होने वाले आगमन को रोक लेने के बाद पूर्वसंचित कर्मों का क्षय तपाराधन से ही संभव होता है अतः यह कहा जा सकता है कि तप से तपे बिना आत्मा को मोक्ष नहीं मिल सकता है। तपस्वी अपने पूर्वोपार्जित कर्मों को उसी तरह अपनी आत्मा से झाड़कर अलग कर देता है जिस तरह कोई पक्षी अपने पंखों को फड़फड़ाकर उनकी धूल को झटक देता है। तप से तपा हुआ साधक अपने तप के तीर से कर्मों के कवच को भेद डालता है।
__ मैं जानता हूँ कि तप के ताप से जो निर्लिप्त ऊर्जा शक्ति मिलती है, वही आत्मा और देह की पृथकता को स्पष्ट करती है और प्रेरणा देती है कि इस देह को तपाराधन से कृश करते चलो ताकि सांसारिकता का मूल नष्ट होता जाय। देह दमन के तप से ही आत्म-दमन का तप सफल होता है और निर्जरा की शक्ति पैनी बनती है। किसी भी प्रकार का तप करने से पहले विवेक का सधा हुआ रहना जरूरी है। इसी कारण मैं तपाराधन के पूर्व अपने शारीरिक एवं मानसिक बल को आंक लेता हूँ, काल-विकाल को भी परख लेता हूँ, अपने आरोग्य को भी सम्हाल लेता हूँ तथा
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