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__ मैंने ऊपर इसी मानदंड की ही विस्तृत चर्चा की है और यह मानदंड है आत्मा के स्वभाव तथा विभाव का। आत्मा में जहाँ तक निज स्वरूप की चेतना रहती है और जीवन की वृत्तियाँ तथा प्रवृत्तियाँ जहां तक उस चेतना के अनुकूल चलती हैं, वे क्रियाकलाप आत्मा के स्वभावगत होंगे। किन्तु जहाँ आत्मिक चेतना की जागृति अत्यल्प है तथा उसका अनुशासन भी ढीला है, वहां मन तथा इन्द्रियों की अनियंत्रित गति उस आत्मा के विभाव स्वरूप को प्रकट करती है। वस्तुतः मेरा कौनसा कार्य मेरी आत्मा के स्वभाव में सम्मिलित किया जायगा तथा मेरा कौनसा कार्य उसके विभाव में गिना जायगा-इसका निर्णय किसी बाहरी आलोचना या चर्चा की अपेक्षा स्वानुभूति के क्षणों में ठोस होगा। जितनी भीतर बाहर की मानसगत बारीकियाँ अपने काम काज के बारे में मैं जानता हूं, दूसरा अपूर्ण व्यक्ति नहीं जान सकता तथा कोई कारणों से किसी भी अपने काम काज का पूरा स्वरूप मैं दूसरों को न समझा सकूँ, लेकिन मैं स्वयं तो अपने काम काज पर एक समूची नजर डालकर उसके समग्र गुण दोषों का सही आकलन कर ही सकता हूं। अतः रूपान्तरण की निष्ठा के साथ मैं स्वानुभूति के क्षणों में अपनी आत्मा के स्वभाव एवं विभाव की तुला पर अपनी वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों को चढ़ाऊंगा और स्वभावगत सद् तथा विभावगत असद् की तुलना करूंगा। इस तुलना से प्रकट हो सकेगा कि मेरी तुला का कौनसा पलड़ा ज्यादा भारी है—सद् का याने आत्म स्वभाव का अथवा असद् का याने आत्म विभाव का? आंकड़ा भी सदासद के जमाखर्च के मुताबिक ही बनेगा तथा रूपान्तरण का पुरुषार्थ भी इसी तथ्य पर चलाया जा सकेगा कि मेरी आत्मा में उसका अपना स्वभाव प्रबल है अथवा उसका विभाव? और स्वभाव को प्रबल बनाना तथा विभाव को घटाते हुए समाप्त करना—यही मेरे आन्तरिक रूपान्तरण का लक्ष्य होगा।
अब मैं अपने उस पुरुषार्थ पर विचार करूं जो मेरे आन्तरिक रूपान्तरण को सफल बनादे और मेरा आत्मिक-स्वभाव प्रभावपूर्ण रीति से सुप्रकट हो जाय।
यह मैं समझ चुका हूं कि मेरा आत्म स्वरूप भी मूल रूप में सिद्धात्माओं के स्वरूप जैसा ही पूर्ण सत्यमय एवं निर्मल है, परन्तु यह स्वरूप वर्तमान में मेरी अपनी आत्मा की विभावगत स्थिति एवं असद् वृत्ति-प्रवृत्तियों से ढका हुआ है। इसलिये मुझे देखना और परखना यह है कि मेरी आत्मा ने अपने मूल स्वभाव को कितने अंशों में आच्छादित कर रखा है तथा कितने अंशों में विभाव को छोड़कर स्वभाव को अपनाने की तैयारी है ? मेरा मानना है कि जहाँ मैं अपने आन्तरिक रूपान्तरण का निश्चय करता हूं तथा उसके लिये अपना पुरुषार्थ प्रायोजित करना चाहता हूं, मेरे में आत्माभिमुखी होने की जागृति अवश्य जग गई है। अब मैं इस जागृति को बढ़ाता रहूं तथा प्रतिक्षण अपनी समस्त वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों को जांचता-परखता रहूं -अपनी ही आत्मा के स्वभाव और विभाव की कसौटी पर तथा ज्यों ही किसी भी वृत्ति और उसके द्वारा उपजी प्रवृत्ति को विभाव की ओर मुड़ते हुए महसूस करूं, त्यों ही उसका निरोध कर डालूं। मैं दृढ़ निश्चय कर लूं कि आत्म-स्वभाव के विरुद्ध मैं मन और इन्द्रियों की एक नहीं चलने दूंगा और स्वभाव विरोधी वृत्ति या प्रवृत्ति को उपजने के बिन्दु पर ही निग्रहित कर दूंगा। मैं धार लूं कि मेरे जीवन में केवल वही विचार, वचन या कर्म सम्पन्न हो सकेगा, जिसकी अनुमति मेरी आत्मिक आन्तरिकता या सरल शब्द में आत्मा की आवाज देगी। मैं कहीं भी आत्मा की आवाज को तनिक भी नहीं कुचलूंगा, बल्कि अपने मन और इन्द्रियों को ऐसे आज्ञाकारी सेवक बना लूंगा कि आत्म शक्ति और आत्मानुशासन नितप्रति अभिवृद्ध ही बनता जायगा। मेरे इसी निश्चय पर आन्तरिक रूपान्तरण का सूत्रपात हो
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