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अनशन आदि बाहरी क्रियाओं तक ही सीमित रह जाता है तो वह उतना हितावह नहीं बनता क्योंकि तप की तेजस्विता से विषय-कषायों से सम्बन्धित मन, वचन एवं काया का अशुभ योग व्यापार जलना ही चाहिये। तप की आराधना से ही आत्मा के अनेक स्वाभाविक गुण प्रकट होते हैं तथा प्रभावपूर्ण बनते हैं। (४) भाव (भावना) मुमुक्षु आत्मा अशुभ भावों को दूर करके अपने आप को शुभ भावों में तल्लीन बनाने के लिये जो संसार की अनित्यता आदि का विचार करती है, वही भावना है। अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएँ हैं। मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं मध्यस्था में भी चार भावनाएँ हैं। व्रतों को निर्मलता से पालन करने के लिये व्रतों की पृथक-पृथक् भावनाएँ भी बतलाई गई हैं। मन को एकाग्र करके उसे इन शुभ भावनाओं में लगा देना ही भावनाधर्म है। आत्मा के स्वभावगत प्रत्येक गुण को द्विरूपी माना गया है—एक भाव रूप तथा दूसरा द्रव्य रूप । द्रव्य रूप वह जो उसका स्वरूप और प्रयोग बाहर दिखाई देता है, जबकि गुण का भाव रूप अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि द्रव्य रूप स्वयं भाव रूप से उपजता है। गुण की आत्मा उसका भाव रूप तो उसका शरीर द्रव्य रूप होता है। चिन्तन, मनन एवं अनुशीलन से अमुक गुण का मर्म जो हृदय में जागता है उसी के प्रभाव से वाणी और कर्म में वह गुण उतरता है तथा आचरण में स्थायित्व पाता है।
इस प्रकार धर्माराधना की प्रक्रिया में ज्यों-ज्यों आत्मा का कलुष और विकार समाप्त होता है, त्यों-त्यों उसके स्वभावगत गुण प्रकट होकर खिल उठते हैं। जीवन में इससे एक ओर निर्मलता प्रतिभासित होती है तो दूसरी ओर स्वाभाविक गुणों का ओजपूर्ण विकास भीतर बाहर के क्षेत्रों में प्रभावी बनता है।
धर्मनीति का व्यापक स्वरूप ___ मैं इसे सही नहीं मानता कि धर्म नीति का प्रयोग क्षेत्र व्यक्ति तक ही सीमित है। उस का व्यापक क्षेत्र भी है तो व्यापक स्वरूप भी। सामान्य रूप से धर्मनीति का अर्थ नीति और कर्तव्य से लिया जाता है। जिस प्रकार व्यक्ति की नैतिकता और कर्तव्यनिष्ठा पर धर्माराधना बल देती है, उसी प्रकार ग्राम से लेकर नगर, राष्ट्र और संघ तक की नैतिकता एवं कर्तव्यनिष्ठा पर धार्मिकता अपना अभिमत प्रकट करती है। अपने शुद्ध स्वरूप में धार्मिकता और नैतिकता व्यक्तिगत एवं समूहगत दोनों प्रकार की जीवन पद्धतियों को सम्यक् रीति से संचालित करने में समर्थ मानी गई हैं।
कर्तव्य बोध की दृष्टि से धर्म के दस स्वरूप इस प्रकार वर्णित किये गये हैं :
(१) ग्राम धर्म-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होता है, अतः जब उसका सम्पर्क अपने मूल परिवार के घटक के बाहर आरंभ होता है तब उसका परिचय कुछ विस्तृत समस्याओं तथा उनके प्रति अपने कर्तव्यों से होता है। हरेक गाँव की अपनी परम्पराएँ होती हैं -अपने रीति-रिवाज होते हैं-उनकी सुव्यवस्था कैसे की जाय तथा प्रचलित व्यवस्था में क्या-क्या सुधार किये जायं – इस पर प्रत्येक ग्रामवासी को विचार करना होता है तथा अपनी सम्मति देनी होती है ताकि सब सम्मतियों का समन्वय होकर ग्राम की उन्नति के लिये सुन्दर योजना का निर्माण हो सके। मुख्यतः समूह की दृष्टि से समाज के सबसे छोटे घटक परिवार के ऊपर ग्राम का क्रम आता है। जिस प्रकार परिवार का प्रत्येक सदस्य परिवार से संरक्षण प्राप्त करता है और उसकी उन्नति के लिये त्याग भी करता है, उसी प्रकार उसे ग्राम धर्म यह सिखाता है कि समस्त ग्राम को वह एक बड़े परिवार के
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