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रूप में देखें तथा ग्राम हित के लिये प्राथमिकता से ध्यान दे। ग्राम और ग्रामवासियों के पारस्परिक हितों की व्यवस्था इस रूप में हो कि एक ओर ग्राम सभी निवासियों को आगे बढ़ने के लिये सामूहिक संरक्षण प्रदान कर सके तो दूसरी ओर ग्रामवासी भी अपने स्वार्थों को ग्रामहित से ऊपर न उठने दें। इस सुव्यवस्था की छाया में धार्मिकता और नैतिकता समुन्नत बने – यह ग्राम धर्म का प्रधान लक्ष्य होना चाहिये ।
( २ ) नगर धर्म - नगर की निवास पद्धति को नगर धर्म कहते हैं जो प्रत्येक नगर के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरूप वाली हो सकती है। वैसे नगर भी ग्राम के ही समान परिवार से ऊपर का घटक होता है अतः ग्रामधर्म एवं नगर धर्म का स्वरूप तथा कर्त्तव्य प्रायः समान ही होते हैं । अन्तर इतना ही होता है कि ग्राम की सीमा से नगर की सीमा विस्तृत होती है तथा आबादी भी बहुसंख्यक, जिसके कारण ग्राम की समस्याओं से नगर की समस्याएँ अधिक जटिल होती हैं और जटिल समस्याओं समाधान के लिये नगरनिवासियों की कर्त्तव्य निष्ठा भी अधिक गहरी होनी चाहिये। नगर की परम्परागत गुणधर्मिता को संरक्षण मिले तथा प्रत्येक नागरिक को अपने जीवन विकास के मुक्त अवसर - यह नगर धर्म की सफलता का परिचायक होता है।
(३) राष्ट्र धर्म - भौगोलिक दृष्टि से किसी देश की सीमाएँ निर्धारित होती हैं, किन्तु उसमें रहने वाले नागरिकों के मन में जो एकता एवं संयुक्तता का भाव होता है, वह उस देश की राष्ट्रीयता कहलाती है। राष्ट्रधर्म इसी भाव को विकसित करने वाला होता है ताकि उस देश में रहने वाले नागरिक भाषा, रीति-रिवाज या मान्यताओं की विविधता के उपरान्त भी राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट रह सकें। यों राष्ट्रीयता भी आक्रामक नहीं होनी चाहिये तथा उसका रुख अन्तर्राष्ट्रीयता तथा विश्वबन्धुत्व की दिशा में गतिशील रहना चाहिये। ऐसा राष्ट्रधर्म ही किसी भी राष्ट्र में वहाँ की व्यवस्था को नैतिक एवं धर्माधारित बनाये रखता है तथा वहाँ के नागरिकों में सहज वातावरण के प्रभाव से स्वाभाविक
उदात्त बनाता है।
(४) पाखण्ड धर्म - पाखण्ड व्रत को कहते हैं । इसमें लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रकार के
व्रतों के पालन का समावेश हो जाता है। पाखण्ड का एक अर्थ यह भी होता है जो पाप का खण्डन करता है वह पाखण्ड है, व्रत पाप से रक्षा करता है वृतराधन से पाप खण्डित निर्जरित होता है। ऐसे व्रत को जो स्वीकार करता है उसे व्रती या पाखण्डी कहा जाता है । व्यवहार में पाखण्ड को दम्भ अर्थ
प्रयुक्त किया जाता है किन्तु यहां उसे ग्रहण नहीं किया गया है।
(५) कुल धर्म - समाज का ही यह एक अन्य प्रकार का घटक होता है, जिसका फैलाव ग्राम-नगर से लेकर राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्र तक हो सकता है। गृहस्थों के कुलों का आचार कुलाचार कहलाता है तो साधुओं के गच्छों का आचार समाचारी कहलाती है। इन दोनों की गणना कुल धर्म में होती है। किसी कुल से सम्बन्ध रखने के नाते एक व्यक्ति का कर्त्तव्य अपने कुल की सुव्यवस्था एवं उन्नति के साथ भी सम्बन्धित होता है। अलग-अलग स्तरों पर एक ही व्यक्ति को अपने अलग-अलग धर्मों-कर्त्तव्यों का निर्वाह करना होता है। कुल भी समाज के अन्तर्गत एक प्रकार का समूह ही होता है जिसकी संस्कृति में एक प्रकार की समानता होती है किन्तु समय- प्रवाह में कुलों का स्वरूप भी बदलता रहता है।
(६) गणधर्म-कुलों का समूह गण कहलाता था और उस गण के का नाम दिया गया। यह प्राचीन युग का पारम्परिक शब्द है तथा इसी नाम
आचार को गण धर्म गणराज्य की नींव
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