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(११) प्रेक्षा संयम - बीज, हरी घास, जीव-जन्तु आदि से रहित स्थान में अच्छी तरह देखभाल कर सोना, बैठना, चलना आदि क्रियाएं करना प्रेक्षा संयम है।
(१२) उत्प्रेक्षा संयम - मनोज्ञ - अमनोज्ञ पदार्थों में या प्रसंगों में राग-द्वेष न करते हुए उपेक्षा भाव (माध्यस्थ्य भाव) रखना । अथवा - वस्तु को भली-भांति बार-बार देखना ।
(१३) प्रमार्जना संयम - स्थान तथा वस्त्र - पात्र आदि को पूंज कर काम में लाना प्रमार्जना
संयम है।
(१४) परिष्ठापना संयम - आहार या वस्त्र पात्र आदि को जीवों से रहित स्थान में यतनापूर्वक शास्त्र में बताई विधि के अनुसार परठना परिष्ठापना संयम है।
(१५) मनः संयम - मन में ईर्ष्या, द्रोह, अभिमान आदि विकारी भाव न रखकर उसे धर्मध्यान में लगाना मनः संयम है ।
(१६) वचन संयम - हिंसाकारी कठोर वचन को छोड़कर शुभ वचन में प्रवृत्ति करना वचन संयम है।
(१७) काय संयम—गमनागमन तथा दूसरे आवश्यक कार्यों में उपयोग पूर्वक शुभ प्रवृत्ति करना काय संयम है ।
ये ही संयम के सत्रह भेद अन्य प्रकार से भी बताये गये हैं—
(१-५) हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह रूप पांच आश्रवों से विरति ।
(६-१०) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांच इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर जाने से रोकना अर्थात् उन्हें वश में रखना ।
(११-१४) क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों का त्याग करना । (१५-१७) मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति रूप तीन दंडों से विरति ।
यों संक्षेप में संयम के चार रूप कहे गये हैं- ( १ ) मन का संयम (२) वचन का संयम (३) शरीर का संयम तथा (४) उपधि सामग्री का संयम । अति संक्षिप्त व्याख्या यह है कि कर्म-बंधन कराने वाले कार्यों को छोड़ देना संयम है। मार्गणा स्थान में अवान्तर भेद से संयम के सात भेद बताये गये हैं- ( १ ) सामायिक संयम (२) छेदोपस्थापनीय संयम (३) परिहारविशुद्धि संयम, ( ४ ) सूक्ष्म सम्प्रदाय संयम (५) यथाख्यात संयम (६) देश विरति तथा (७) अविरति ।
पाप या दोषों के सेवन से संयम की विराधना होती है। इसे प्रतिसेवना कहते हैं, जो दस प्रकार की कही गई है—
(१) दर्प प्रतिसेवना – अहंकार या अभियान से होने वाली संयम की विराधना |
(२) प्रमाद - प्रतिसेवना – मद्य पान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा – इन पांच प्रमादों के सेवन से होने वाली संयम की विराधना |
(३) अनाभोग प्रतिसेवना - अज्ञान से होने वाली संयम की विराधना ।
(४) आतुर प्रतिसेवना – भूख प्यास आदि किसी पीड़ा से व्याकुल हो जाने पर की जाने वाली संयम की विराधना ।
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