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आता, जितना भाषा का प्रहार आता है। कहा जाता है कि कटु वचन तलवार की तेज धार से भी अधिक मारक होता है। तलवार से पड़ा हुआ घाव तो फिर भी समय गुजरने पर भर जाता है, मगर वचन का घाव बड़ी मुश्किल से ही भरता है। अतः भाषा का विवेक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण माना गया है।
(५) मृत्यु जीवन में सतत जागृति के लिये मृत्यु का स्वरूप जान लेना परमावश्यक है। इस संसार में अपनी विकारपूर्ण कामनाओं को पूरी कर लेने की धुन में मनुष्य अपनी आयु के अन्तिम छोर तक भी इस बेपरवाही से भागदौड़ करता है जैसे उसको इस संसार से कभी विदा ही नहीं होना है—मरना ही नहीं है वह सरंजाम सौ बरस के करता है जबकि एक पल का भी पता नहीं होता कि वह किस पल यहाँ इस जीवन से उठ जायगा। मृत्यु को सदा ध्यान में रखते हुए मनुष्य विषय-कषायों से दूर हटे तथा संयम साधना में प्रवृत्त रहे—यह है मृत्यु के स्वरूप ज्ञान का एक पहल | दूसरा पहलू यह होगा कि वह मृत्यु के ही संदर्भ से आत्मा की अमरता का ज्ञान करे। मृत्यु एक जीवन और उस जीवन में प्राप्त शरीर का अन्त करती है, आत्मा के अस्तित्व का नहीं। जीर्ण वस्त्र त्याग कर जैसे नया वस्त्र धारण किया जाता है, वैसे ही यह आत्मा एक जीर्ण शरीर को छोड़कर आयुष्य समाप्ति के बाद नया शरीर धारण कर लेती है। मृत्यु के इन दोनों पहलुओं का ज्ञान मनुष्य को सतत आत्म-जागृति तथा अपने अस्तित्व की निरन्तरता का बोध देता है।
(६) परिवार—मनुष्य गर्भावस्था में और अपने जन्म के साथ अपनी माता से लेकर अपने परिवार जनों के ही प्रथम सम्पर्क में आता है। यही कारण है कि अति विस्तृत मानव समाज में परिवार ही एक आधारभूत घटक माना गया है, सांसारिक परिस्थितियों के थपेड़ों में पड़ने के बाद मनुष्य तथा उसके परिवार जनों का पारस्परिक व्यवहार भी शुभता और अशुभता के रंगों में से होकर गुजरता है। इसमें जितना सद् विवेक सब में होता है, उतने ही परिवार में शुभ रंग खिलते हैं
और पारिवारिक आत्मीयता से जुड़े हुए होने पर भी परिवार के सदस्य यदि स्वार्थ और कलह में डूब जाते हैं तो अशुभता के बदरंग भी साफ नजर में आ जाते हैं। यह परिवार का एक स्वरूप है किन्तु हमारी विकसित संस्कृति इसका दूसरा स्वरूप भी बताती है कि सारी वसुधा ही हमारा परिवार है अर्थात् सम्पूर्ण संसार के समस्त जीवों का परिवार ही हमारा परिवार है। यह आत्मा अनादिकाल से इस संसार में भव भ्रमण कर रही है और इस संसार का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जो इस आत्मा के जीवन सम्पर्क में न आया हो अथवा ऐसा कोई जीव भी नहीं होगा जिस के साथ किसी न किसी जन्म में इस आत्मा का सम्बन्ध न रहा हो अतः जन्म जन्मों का परिवार यह समूचा संसार है। वर्तमान परिवार तो मात्र इसी जन्म का परिवार है। अतः विशाल परिवार के प्रति मनुष्य को कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिये।
(७) मित्र-शत्रु-सामान्य परिभाषा के अनुसार जो सहायता करे वह मित्र और जो विरोध करे वह शत्रु कहलाता है। यह स्थूल परिभाषा है जबकि शत्रु-मित्र की सूक्ष्मता मनुष्य के अन्तर्मन की भावनाओं से सम्बद्ध रहती है। मैत्री की मूलाधार भावना होती है सदाशयता और शत्रुत्व की स्वार्थ मूलक विद्वेषात्मक भावना। इस दृष्टि से शत्रु या मित्र दूसरा व्यक्ति नहीं होता बल्कि अमुक प्रकार की भावना से जुड़ने के कारण शत्रुत्व या मित्रत्व उसमें आता है। अतः सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो व्यक्ति नहीं, अच्छी भावनाएं ही असल में मित्र और बुरी भावनाएं ही शत्रु होती हैं। अतः बुरी
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