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की सतह पर पहुंचती है किन्तु विभाव में पड़ कर जितना कर्म-भार अपने साथ बांधती है, उसी परिमाण में वह डूबती हुई चली जाती है। जल की गहराई में भी उसका ऊपर उठना या नीचे उतरना इसी कर्म भार की न्यूनाधिकता के अनुसार चलता रहता है।
स्व-भाव ही धर्म होता है किसी भी पदार्थ को उसका स्वभाव ही धारण करता है या यों कहें कि अपने अमुक स्वभाव के कारण ही अमुक पदार्थ उस रूप में जाना जाता है। जल का स्वभाव शीतल होता है इसी कारण उसे जल कहते हैं। अग्नि का स्वभाव जलाने का होता है तो उसे अग्नि कहते हैं। यह सामान्य समझ सबमें होती है। सब समझते हैं कि कहीं कुछ जल रहा हो तो उस पर पानी डाल दो ताकि शीतलता ऊष्णता को दबा देगी। शीतलता और ऊष्णता को जल और अग्नि का धर्म भी कह दिया जाता है।
जो यह सत्य वीतराग देवों ने उद्घाटित किया और घोषणा की कि वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म होता है। जल का धर्म शीतलता है और अग्नि का धर्म ऊष्णता है, इसी दृष्टि से आत्मा का धर्म क्या होगा—यह उपरोक्त विश्लेषण से सोचना होगा। एक शब्द में इसका उत्तर बतावें तो आत्मा का धर्म ज्ञाता दृष्टादि भावों के साथ ऊर्ध्वगामिता होगा—ऊपर उठने की अन्तिम ऊंचाई तक ऊपर उठ जाना और फिर सदा सर्वदा के लिये उस उच्चतम बिन्दु पर स्थित हो जाना। आत्मा का यह ऊर्ध्वगामिता का स्वभाव ही उसका धर्म कहलायगा।।
धर्म के सम्बन्ध में जो सामान्य समझ है—वह कहां तक सही है ? सामान्य रूप से धर्म समझा या कहा जाता है विभिन्न सिद्धान्तों को अथवा विभिन्न महापुरुषों के उपदेशों को। इसी रूप में धर्म की धारणा ली जाती है कि अमुक महापुरुष ने जो उपदेश दिये, वे उसके नाम से एक धर्म के रूप में प्रचलित हो गये। इस धारणा के आधार पर ही वैष्णव, इस्लाम या ईसाई आदि 'धर्म' कहलाते है। समय-प्रवाह में इन्हीं धर्मों के दायरों में अलग-अलग गुरुओं के उन्हीं उपदेशों के बारे में जब अलग-अलग अर्थ विन्यास हुए तो वे इसी धर्म में अलग-अलग मतों के नाम से जाने जाने लगे। यों कई धर्म और एक धर्म में कई मत आज जाने जाते हैं। वस्तुतः यह सामान्य समझ इस रूप में सही नहीं है। इस समझ के सही नहीं होने का ही सबूत है कि विभिन्न धर्मानुयायियों में पारस्परिक विवाद खड़े होते हैं और आज ऐसे विवादों ने जटिल संघर्षों तथा दंगों तक का हिंसक -रूप ले लिया है। धर्म के नाम पर भी यदि लड़ना है तो फिर एक रहने की शिक्षा कौन देगा? इसलिये धर्म के स्वरूप को सही तरीके से समझने की आज महती आवश्यकता है।
फिर धर्म क्या है ? वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म होता है और तदनुसार आत्मा का धर्म समभाव पूर्वक ज्ञाता दृष्टा आदि भावों के साथ ऊर्ध्वगामिता है। मनुष्य का धर्म आत्मा के धर्म में समाहित हो जाता है क्योंकि मनुष्य तन में भी उसकी आत्मा का निवास होता है। अतः मनुष्य का धर्म भी हुआ कि वह अपने स्वभाव की उच्चता पर स्थित हो। उच्चस्थ स्थिति ही उसका धर्म है। इस दृष्टि से धर्म एक स्थिति या अवस्था का नाम है, जहां इस विभावग्रस्त आत्मा को पहुंचना है।
अतः स्पष्ट तौर पर समझें कि धर्म उस विशुद्धावस्था का नाम है जहां पर आत्मा पूर्ण रूप से अपने स्वभाव में स्थित हो जाती है। धर्म प्राप्ति के योग्य उच्चतम अवस्था है। इस अवस्था को प्राप्त करना आत्मा का सर्वोच्च लक्ष्य है और इस रूप में यही उसका स्वभाव है एवं यही उसका धर्म
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