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मानती है तथा सभी प्रकार की ऊंची नीची परिस्थितियों में समभाव रखने को उच्च आदर्श। ज्ञान से ही वस्तु का सत्य स्वरूप जाना जाता है तथा यथा दृष्टि से देखने का अभ्यास बनता है। सबके सब भावों को जानना ज्ञान का श्रेष्ठ कार्य कहा गया है क्योंकि उस से अहिंसामय आचरण ढलता है और चारित्र सहित ज्ञान जब परमोत्कृष्ट हो जाता है तो वह केवल ज्ञान होकर सम्पूर्ण लोकालोक को हस्तामलकवत् देखता है। ज्ञानी सदा सुखी रहता है और अज्ञानी सदा दुःखी। अतः स्वाध्याय में निरत रहकर सदा ज्ञानार्जन हेतु सचेष्ट रहना चाहिये।
(८) सम्यक् चरित्र—आस्था भी हो और ज्ञान भी, लेकिन यदि ये दोनों गुण आचरण में नहीं उतरे तो वे पूर्ण फल प्रदायी नहीं होती है। आचरण ऐसी कसौटी होती है जिस पर किसी की आस्था अथवा ज्ञान-गंभीरता का मूल्यांकन किया जा सकता है। मोक्ष भी ज्ञान और क्रिया दोनों के संयोगी पुरुषार्थ से ही हो सकता है।
(६) श्रद्धा—धर्म सुन लें, समझ लें किन्तु उस पर यदि श्रद्धा -विश्वास न करें तो उस आत्मा का कभी भी उद्धार संभव नहीं है क्योंकि संशयात्मा, विनष्ट हो जाती है। जो अपनी श्रद्धा को सम्यक् बना लेता है, वह अपने मार्ग पर कहीं रुकता नहीं है क्योकि उसके मार्ग पर हमेशा उसके श्रद्धा पुरुष का प्रकाश छाया हुआ रहता है। ज्ञान दुर्लभ, तब श्रद्धा कठिन और उससे भी कठिन होता है पुरुषार्थ –किन्तु यदि ये तीनों मिल जाय तो आत्म विकास में विलम्ब नहीं लगता।
(१०) आत्मा–आत्मा अपने मूल गुणों के अनुसार सर्वशक्तिमान होती है किन्तु उसकी यह शक्ति कर्म पुदगलों से आच्छादित होकर धूमिल बनी हुई रहती है अतः कर्मों के संवर तथा निर्जरा की प्रक्रिया द्वारा जब कर्मावरण समाप्त कर दिये जाते हैं तब यहीं बद्ध आत्मा बुद्ध और सिद्ध बन जाती है। संसार रूपी महासागर में यह आत्मा गोते खा रही है लेकिन यदि यह अपने शरीर को नौका बनाकर स्वयं कुशल नाविक हो जाय तो खेवापार हो सकता है। आत्मा स्वयं की स्वयं ही ज्ञाता और दृष्टा होती है तथा स्वयं ही कर्ता और भोक्ता होकर अपने स्वरूप के प्रति जागृत हो जाय तो उसके समान उसका अन्य कोई मित्र नहीं होता और जब तक वह विषय-कषायों के दल-दल में फंसी रहती है तब तक वह अपनी ही शत्रु बनी रहती है। अतः आत्मा जब स्वयं को ही जीतती है तब वह अपने आपको कर्म मुक्त कर लेती है।
(११) मोक्ष-आत्मा का उसके मूल स्वरूप में पूर्णतः कर्मावरणों से अनावृत्त हो जाने का नाम ही मोक्ष है। आत्मा पौदगलिक जड़ के साथ संयुक्त होने के कारण ही संसार में संसरण करती है और जब आसक्ति मूलक इस संयोग को सर्वथा समाप्त कर दिया जाता है तब उस आत्मा का मोक्ष हो जाता है। तब आत्मा सम्पूर्णतः स्व स्वरूप में स्थित होकर केवल ज्ञान स्वरूप हो जाती है। रत्ल त्रय की साधना या ज्ञान क्रिया की आराधना ही आत्मा को मोक्षगामी बनाती है। और यह साधना व आराधना समता भाव की सम्पूर्ण अवाप्ति से ही सफल बनती है। जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर आत्मा अपने अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य में रमण करती है। सिद्धात्मा ज्योति में ज्योति स्वरूप एकीभूत होकर सदा काल के लिये आनन्दमय बनी रहती है। मोक्ष पद ही आत्म-विकास की इस महायात्रा का चरम गंतव्य होता है।
(१२) तप-तप का अर्थ होता है तपना और तपने से मैल क्षय होता है व निर्मलता आती है। यह आत्मा संसार के विषय-कषायों में रमती हुई कर्मों का मैल अपने स्वरूप पर लेपती
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