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मेरे ऐसे निर्देशों को दीर्घ काल के अभ्यास के बाद ही सफलता प्राप्त हो सकेगी। समय अवश्य लगेगा किन्तु इस अभ्यास से उन निर्देशों की प्राभाविकता भी स्थायी स्वरूप ग्रहण करती जायगी ।
मैं मेरे मन को ऐसे कठोर निर्देश देते समय इस बात का ध्यान रखूंगा कि विवशतावश अथवा प्रमादवश होने वाली भूलों को मैं उसी क्रम से तथा उतनी ही सक्रिय सशक्तता से परिमार्जित करने का कार्य करूंगा जिस क्रम से वे उत्त्पन्न हुई थी । इस पद्धति को अपनाने से मेरा आत्म-समीक्षण एक वैज्ञानिक रूप ले लेगा। यह सही है कि सभी भूलों का समीक्षण, निरीक्षण अथवा परिमार्जन एक ही साथ होना संभव नहीं होगा, किन्तु स्थूल प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करते हुए मेरा नियंत्रण तदनन्तर सूक्ष्म वृत्तियों के परिष्कार तक भी पहुंचता हुआ चला जायगा ।
आत्म-समीक्षण से मेरी आत्म-चिन्तन तथा आत्मदमन की क्रिया वलवती बनेगी और जब तक मैं इसमें साधन रूप से संलग्न रहूंगा तब तक मेरा अन्तःकरण उत्साह और उमंग से परिपूरित रहेगा और भीतर की जिज्ञासा जागती रहेगी कि मैं अपनी साधना के आगामी चरणों को सुनिश्चित करता हूं। तब मेरी साधना का क्रमिक विकास होता चला जायगा । समीक्षण पूर्वक आत्म-चिन्तन एवं आत्म-संशोधन ही उसका आधार बनेगा ।
मैं प्रति रात्रि के प्रथम एवं अन्तिम प्रहर में स्वयं अपनी आत्मा का निरीक्षण करूंगा और विचार करूंगा कि मैंने कौनसे अपने कर्त्तव्य पूरे किये हैं तथा कौनसे कर्त्तव्य पूरे करना शेष है और किन-किन शक्य अनुष्ठानों का मैं आचरण नहीं कर रहा हूं? मैं चिन्तन करूंगा कि दूसरे लोग मुझ में क्या दोष देख रहे हैं और मुझे अपने-आपमें क्या-क्या दोष दिखाई दे रहे हैं। इन दोषों के बारे में मैं अपने-आपसे ही प्रश्न करूंगा कि क्या मैं इन दोषों को नहीं छोड़ रहा हूं ? तब मैं संकल्प लूंगा कि सम्यक् रीति से अपने दोषों को देखते हुए भविष्य में मैं ऐसा कोई दोषपूर्ण कार्य नहीं करूंगा जिससे कि मेरी साधना में बाधा पहुंचे। मैं जब भी अपनी आत्मा को मन, वचन एवं काया सम्बन्धी दुष्ट व्यापारों में लगी हुई रखूंगा, उसी समय उसे शास्त्रोक्त विधि से दुष्ट व्यापार से हटाकर संयम व्यापार में लगा दूंगा। जैसे आकीर्णक जाति का घोड़ा लगाम के नियंत्रण में रहकर सही रास्ते पर चलता जाता है, उसी प्रकार मैं अपनी आत्मा के विधिपूर्वक एवं नियंत्रणपूर्वक संयम के राजपथ पर चलता रहूंगा। मैं जानता हूँ कि जो आत्मा पवित्र भावनाओं से शुद्ध हो जाती है, वह जल पर चलने वाली सुघड़ नौका के समान बन जाती है। वैसी आत्मा ही सुघड़ नौका की तरह संसार रूपी महासागर के उस पार पहुँच कर अपने को सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त कर लेती है ।
आत्म-चिन्तन की पावन धारा में प्रवाहित होते हुए मुझे अनुभूति होती है कि आत्मा को वश में करना अति कठिन कार्य है, फिर भी उसका संशोधन करते रहना चाहिये क्योंकि जो अपनी आत्मा को विषयों की दृष्टि से वश में कर लेता है, वह इहलोक और परलोक दोनों जगह सुखी बनता है। दूसरे लोग वध, बन्धन आदि साधनों से मेरा दमन करें - इसकी अपेक्षा यही अच्छा है कि मैं ही संयम और तप का आचरण कर अपने आप ही अपना दमन करूं। यह दमन अपनी आत्मा को विषयों की ओर जाने से रोकने के रूप में होगा। समस्त इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों की ओर जाने से रोककर मैं पापों से अपनी आत्मा की रक्षा करूंगा क्योंकि पापों से अरक्षित आत्मा ही संसार - परिभ्रमण करती है और सुरक्षित आत्मा संसार के सभी दुःखों से मुक्त हो जाती है। मैं सोचता हूं कि श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने से मैं मनोज्ञ शब्दों में राग नहीं करूंगा और अमनोज्ञ शब्दों से द्वेष
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