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मुझे इस अन्तर्जगत् को थोड़ा-थोड़ा करते हुए भी सम्पूर्ण रूप से देखना है, तभी मेरा दृष्टा-भाव सिद्ध हो सकेगा। जब मैं को ही मैं पूरी तरह से जानूंगा—मैं को ही मैं पूरी तरह देखूगा, तभी मैं पूरी तरह से विज्ञाता बनूंगा दृष्टा बनूंगा। अभी तो मेरे विज्ञाता और दृष्टा-भाव का पहला ही चरण उठा है, अभी मुझे अपने विज्ञान और अपनी दृष्टि की कई मंजिलें पार करनी हैं।
इस दृष्टि से मैं अपना अभ्यास बना रहा हूँ कि मैं जानूं, जितना जान सकू उससे और अधिक जानने की पिपासा जागृत करता रहूं। मैं जानूं जो वीतराग देवों ने अपने स्वानुभव के बाद कहा है और मैं उसे जानूं अपने ही जीवन के क्रिया-कलापों तथा उनके परिणामों से। चेष्टा यह हो कि मैं जानता रहूं, अपने बाहर के और भीतर के नैत्र हमेशा खुले रखू। और जो जानता जाऊं उसे अपने देखने की कसौटी पर कसता जाऊं। जानूं भीतर बाहर से लेकिन देखू भीतर से अपने ज्ञान चक्षु से, क्योंकि मूल्यांकन वहीं होगा और वहीं से उसके परिणाम का पता चलेगा तो वहीं से आगे के लिए यथोचित निर्देश भी मिलेगा। मेरा यह अभ्यास चलता रहे जिसके चलते रहने से ही मेरा आचरण ढलता रहेगा, सुधरता रहेगा और निखरता रहेगा। जानने और देखने की प्रक्रियाएँ क्रमानुसार चलती रहेगी और मेरे भीतर के प्रकाश एवं सामर्थ्य को बढ़ाती रहेगी।
मैं जानूंगा तो देखूगा और देखूगा तो करूंगा, लेकिन करने को भी देखता रहूंगा और जानता रहूंगा कि मैं क्या कर रहा हूँ, कैसा कर रहा हूँ तथा जो कर रहा हूँ -सही कर रहा हूँ या नहीं और सही नहीं कर रहा हूं तो उस करने को सही कैसे बनाऊं? इसके लिए सही क्या है—यह मुझे अपने देखने से भी जानना पड़ेगा तो वीतराग देवों ने जो देखा और किया है उसको जान कर भी जानना पड़ेगा। मैं जिसे सही जानूंगा उसको मन से भी सही मानूंगा। इस तरह जान और मान लेने के बाद करने का काम मुख्य बन जायेगा, फिर भी उस करने को भी मुझे हमेशा देखते और जानते रहना होगा। और इसी रूप में मेरा यानी कि मेरी आत्मा का विज्ञाता भाव और द्रष्टा भाव सतत जागृत बना रहेगा।
मैं अपने ही ज्ञान और विज्ञान के असीम कोष के कपाट कितने खोल पाता हूँ यह मेरे अपने ही पुरुषार्थ पर निर्भर है. परन्तु यह सत्य तो मेरे गले उतर ही जाना चाहिये कि मेरा ज्ञान कोष अपार है और मेरी दृष्टि अनन्त है। अभी मैं जितना जानता हूँ या जितना देख पाता हूँ, वह उस महासागर की एक बूंद भी नहीं है। तो मुझे समझना होगा कि मेरे आत्म-विकास की महायात्रा कितनी दीर्घ, कितनी कठिन और कितनी श्रमसाध्य हो सकती है ? किन्तु मुझे सत्संकल्प करना होगा कि मैं अपनी इस महायात्रा का उत्साहजनक श्रीगणेश भी करूं तो तीव्रगति के साथ उसे सम्पूर्ण करने के लिए निरन्तर आगे से आगे भी बढ़ता चलूं।
तर्क और आस्था का जन्तर मैं जानता हूँ कि मैं विज्ञाता हूँ और मेरा यह जानना भी मेरे विज्ञाता होने का ही प्रमाण है। किन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि मुझे विज्ञाता बनने के लिये अभी बहुत-बहुत जानना है। अगर मैं मात्र अपने ही प्रयासों से इस जानने के पूरे क्षेत्र की यात्रा करना चाहूंगा तो हो सकता है कि मुझे कई वर्ष ही नहीं, अपने कई जन्म भी पूरे कर देने पड़ें।
क्या कोई ऐसा उपाय नहीं कि मैं कम से कम समय में अधिक से अधिक जान सकूँ? मैं अपनी आत्मा के विकास की महायात्रा पर हूँ यह सही है, किन्तु अनन्त आत्माओं ने अब तक
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