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मैं कर्म निरोधक क्रियाओं को अपनाने की भावना भाऊं-यह संवर भावना है। संवर के दो भेद हैं—द्रव्य संवर और भाव संवर। आश्रव से जो कर्म ग्रहण होता है, उसका अंश और सर्व रूप से छेदन करना द्रव्य संवर होता है तो भव हेतुक क्रिया का त्याग करना भाव संवर है। समिति, गुप्ति, मुनिधर्म, ध्यान, भावना, परिषह-सहन चारित्र आदि सभी आते हुए कर्मों को रोकते है इस कारण द्रव्य संवर के रूप होते हैं। संसार सम्बन्धी क्रिया का ही त्याग कर देना भाव संवर है।
मेरी मान्यता है कि आत्म विकास की दिशा में संवर का अत्यधिक महत्त्व होता है। मुझे वास्तविक सुख की खोज है और मैं चाहता हूं कि उसकी प्राप्ति के लिये अपना परम पुरुषार्थ लगाऊं तो उसके लिये संसार की नैमेत्तिक क्रियाओं से विरत होना अनिवार्य है। मैं समझता हूं कि यदि संसार के प्रति मेरे हृदय में उदासीनता का भाव जग जाय, त्याग-भाव के प्रति सच्ची प्रीति उत्तपन्न हो तथा आत्म विकास की तीव्र लगन लग जाय तो कर्म निरोधक क्रियाओं के द्वारा आश्रव को जीत लेना आसान हो जायगा। संवर भावना के नियमित चिन्तन से मेरी आत्मा की संवर क्रियाओं में रूचि बढ़ेगी तथा संवर क्रियाओं का आचरण करते हुए मैं मुक्ति पथ पर अग्रसर बन जाऊंगा।
कर्मों का मूलोच्छेदन मुझे अपने सुगुरूओं से सद् ज्ञान मिला है कि संवर भावना द्वारा नवीन कर्मों के आगमन को रोकने वाली क्रियाओं की तरफ मैं उन्मुख होऊंगा तो मुझे निर्जरा भावना के माध्यम से यह भी चिन्तन करना होगा कि जो कर्म मेरी आत्मा के साथ लगे हुए हैं, उनका सर्व-प्रकारेण मूलोच्छेदन (नाश) कैसे किया जाय ? संसार के परिभ्रमण के कारणभूत कर्मों को उनके बीजों सहित क्षय करने की भावना ही निर्जरा भावना है। यह दो प्रकार की है—सकाम और अकाम । कर्मों का सम्पूर्णतः क्षय हो—इस विचार से तपाराधन द्वारा उनका क्षय करना सकाम निर्जरा है और फल देकर कर्मों का स्वभावतः अलग हो जाना अकाम निर्जरा है। कर्मों का विपाक अपने स्वभाव तथा आत्मा के उपाय –दोनों प्रकार से होता है। जैसे एक आम डाल पर अपने आप पक जाता है और दूसरे आम को घास आदि से ढककर प्रयत्नपूर्वक भी पकाया जाता है। आत्मा के उपाय से जो निर्जरा की जाती है, वह बारह प्रकार के बाह्य एवं आभ्यंतर तपों की आराधना से संभव होती है। आगामी अधापों में तप का विस्तृत विश्लेषण किया गया है।
मैं जानता हूं कि जिस प्रकार अग्नि सोने के मैल को जलाकर उसे विशुद्ध बना देती है, उसी प्रकार तप रूपी अग्नि आत्मा की कर्म मलिनता को नष्ट करके उसके शुद्ध-स्वरूप को प्रकट कर देती है। पाप रूपी पहाड़ को चूर्ण करने के लिये तप वज्र रूप है, पाप रूपी सघन धन श्रेणी को बिखेर देने के लिये यह आंधी स्वरूप है। तप का आचरण महापापियों के पाप पुंज को भी भस्मीभूत कर देता है। तपा चरण का अपार महत्त्व है। इससे बाह्य और आभ्यंतर शत्रु जीते जा सकते हैं, इसके प्रभाव से लब्धियों और सिद्धियों की प्राप्ति होती है तो यह तपाचरण आत्म स्वरूप प्रकटाने में सहायक होता है।
मैं निर्जरा के गुणों पर गहराई से विचार करूंगा, अपनी आत्मा को निर्जरा के लिये प्रभावित बनाऊंगा एवं कर्मों की निर्जरा के लिये पराक्रम का प्रयोग करूंगा।
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