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अशुचि भावना के क्षणों में मुझे अनुभूति होती है कि सुधर्म ही सत्य है, पवित्र है तथा मेरी आत्मा को भी पवित्रतम बनने की प्रेरणा दे सकता है। अतः मुझे शरीर-भाव से दूर हटकर आत्म-भाव की ओर उन्मुख तथा उसी भाव में तल्लीन बनना चाहिये।
शुभाशुभ योग व्यापार मैं जानता हूं कि आश्रव के माध्यम से ही मन, वचन, काया के शुभाशुभ योग व्यापार द्वारा शुभाशुभ कर्म ग्रहण किये जाते हैं। जैसे किसी भी तालाब में उसके चारों ओर से आने वाले नदी नालों से पानी आता है, वैसे ही आश्रव द्वारा आत्मा में कर्मों का आगमन होता है, जिससे वह व्याकुल और मलिन हो जाती है। पांच अव्रत, पांच इन्द्रियाँ, चार कषाय, तीन योग और पच्चीस क्रिया रूप आश्रव बयालीस प्रकार का होता है। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह की लिप्तता से जीव यहीं इसी जीवन में अनेक प्रकार के वध, बन्धन, ताड़न आदि दुःख पाते हैं। एक एक इन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर ही हिरण, पतंगा, भंवरा, मछली, हाथी आदि प्राणी प्राणान्त तक का कष्ट भोगते देखे जाते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों से दूषित प्राणी न स्वयं सुख से जीते हैं और न दूसरों को ही सुख से जीने देते हैं। अशुभ योग व्यापार एवं क्रिया कलाप में पड़े हुए प्राणियों की भी ऐसी ही दुर्दशा होती है। मुझे यह सब देखकर अपने लिये शिक्षा लेनी है कि मैं अशुभ कर्म बंध के कारण भूत ऐन्द्रिक सुखों की असारता को समझू, धीरे-धीरे ही सही कषायों से अपने को विलग करूं और इन सबके आधार रूप मन आदि के योग व्यापार को शुभता में परिवर्तित करूं जिससे मेरा त्रिविध योग व्यापार परिमार्जित, संशोधित और विशुद्ध बन जाय। मैं जानता हूं कि शुभ योग व्यापार से जिन पुण्य कर्मों का बंध होगा, वे भी मुझे सोने की जंजीर की तरह संसार में रोकने वाले ही होंगे, फिर भी उनके द्वारा प्राप्त होने वाली अनुकूलताओं की सहायता से मैं अपने आत्म-विकास को आसान बना सकता है। यह सही है कि अन्ततोगत्वा पुण्य कर्मों को भी क्षय करके ही मैं सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो सकूँगा।
फिर भी आश्रव भावना के द्वारा मुझे यही चिन्तन करना है कि कर्मों की जंजीर चाहे लोहे की हो या सोने की आत्मा को संसार में ही बांध कर रखती है और मेरी स्वतंत्रता का अपहरण करती है और यह सोचकर अव्रत आदि के कुपरिणाम मुझे समझ लेने चाहिये। मैं भावना पूर्वक निश्चय करूं कि व्रतों को ग्रहण करूंगा, इन्द्रियों और कषायों का दमन करूंगा तथा अशुभ योग व्यापार का निरोध करता हुआ क्रियाओं से निवृत्त होने का प्रयल करूंगा।
कर्म-निरोधक क्रियाएं __मैंने अनुभव किया है कि यदि नाव के पेदे में छेद हो तो उससे पानी भीतर भरेगा और पूरा भर कर नाव को अथाह जल में डुबो देगा। इसी प्रकार आत्मा रूपी नाव में आश्रव रूपी छिद्र से कर्म रूपी पानी बराबर घुसता ही जायगा तो वह आत्मा को डुबोने वाला बनता ही है। इसकी सुरक्षा का उपाय संवर है कि नाव के छिद्रों का निरोध कर दो ताकि बाहर से आने वाला पानी रूक जायगा। अतः संवर उन क्रियाओं को कहते हैं जिन से कर्मों का आना और आत्मा से सम्बद्ध होना रूक जाता है और आत्म विकास की महायात्रा के निर्विघ्न सम्पूर्ण होने की सम्भावना पुष्ट हो जाती
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