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चरण नहीं उठाया जा सकता है। कोई भी भाव मन में उपजता है -वह कैसा भाव है इसकी परख भी मन को ही करनी पड़ती है तथा मन को ही निश्चय करना पड़ता है कि उस भाव का प्रकटीकरण अथवा कार्यान्वयन किया जाय या नहीं। इस दृष्टि से मन निर्णायक का कार्य करता है। अब जो आत्मा जागरूक बन कर अपने विकास का सम्यक् पुरुषार्थ करना चाहती है, उसे सबसे पहले अपने मन को इस रूप में साधना पड़ता है कि वह सदासद का सम्यक् निर्णय कर सके।
जब मेरा 'मैं' भी सजग हो गया है और अपने विकास की महायात्रा को सफल बनाना चाहता है तो उसे पहले मन की गति में दिशा परवर्तन लाना होगा। मैंने यह निश्चय किया है कि मैं अब मन के कहे मुताबिक नहीं चलूंगा, बल्कि मन को अपने आदेश पर चलाऊंगा और उसका यह अर्थ होगा कि मैं प्रतिपल मन के योग व्यापार को अपने नियंत्रण में रखूगा और मन को अशुभता में भटकने नहीं दूंगा। इस प्रकार अपनी आत्मशुद्धि और भाव शुद्धि को अन्योन्याश्रित बना दूंगा, ताकि मन एकनिष्ठ और एकाग्र बन जाय। विभिन्न प्रकार की शुभ भावनाओं के धरातल पर जब मन का नियमित चिन्तन चलेगा तो आत्मा और मन एकरूप बनने लगेंगे ताकि शुद्धता सुरक्षित हो जायगी।
__ मेरा दृढ़ विश्वास है कि आत्म शुद्धि तथा भाव शुद्धि एक रूप होकर मेरी आत्मा में एक नई जागृति का संचार करेगी। शुद्धि और शुभता का मनोयोग निश्चित रूप से वचन योग एवं काम योग को शुद्ध और शुभ बना देगा। तब मन, वचन, काया की शुद्धता ही जीवन की शुद्धता के रूप में ढल जायगी। मेरे जीवन की शुद्धता प्रतिफलित होगी समभाव एवं समदृष्टि के विस्तार में। सभी आत्माएं मेरी आत्मा के समान है—यह समभाव मुझे अहिंसक आचरण प्रदान करेगा तो उससे निर्मित होने वाली समदृष्टि मुझे सत्य की दिशा में अग्रगामी बनायगी। सब प्राणियों के लिये समान भाव रखना तथा व्यवहार की दृष्टि से सबको एक समान देखना -यह आत्म विकास का उच्चतर सोपान होता है।
यही समदर्शिता का सोपान होता है। उस अवस्था में न राग रहता है और न द्वेष । न कोई प्रिय होता है, न कोई अप्रिय। सूक्ष्म प्राणी से लेकर मनुष्य और संसार की सभी आत्माएं उसकी आत्मीय हो जाती है। सबके संरक्षण का वह अभिलाषी होता है। यों कहे कि उस महान् आत्मा की करुणा का विस्तार सम्पूर्ण लोक तक फैल जाता है।
समदर्शिता से ज्योतिर्मयता समदर्शिता आत्मा का मूल गुण है। ज्यों-ज्यों आत्मा अपने कर्मों के आवरणों को दूर करती हुई अपने मूल स्वरूप को प्रकट करती जाती है, त्यों-त्यों उसके भीतर छिपी हुई ज्ञान और दर्शन की ज्योति भी जगमगाने लगती है। समदर्शिता की परिपुष्टता के साथ यह ज्योतिर्मयता भी अधिकाधिक सुप्रकाशित होती हुई चली जाती है।
समदर्शी ज्योतिर्मय महापुरुषों का आदर्श ही मुझे अनुप्राणित करता है यह समझने के लिये कि मैं भी समदर्शी हूं ज्योतिर्मय हूं और यह पुरुषार्थ बताने के लिये कि मैं भी अपनी आत्मा में आवृत्त अपनी समदर्शिता तथा ज्योतिर्मयता के गुणों को अपने प्रबल पुरुषार्थ से प्रकट कर सकता हूं। मैं समझ चुका हूं कि विषय-कषाय की वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ जब मन्दतर बनती जायगी तो उसके साथ-साथ संसार में भटकाने वाले मूल दोष-राग और द्वेष भी घटते जायेंगे। द्वेष के त्याग से भी राग का त्याग कठिनतर होता है अतः मैं भावना भाता हूं कि मैं द्वेष भी छोडूं और अन्ततोगत्वा
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