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किन्तु मेरा मानना है कि तर्क का उपयोग एक सीमा तक ही किया जा सकता है और इसके परिप्रेक्ष्य में इस प्रश्न का उत्तर खोजा जाना चाहिये कि क्या मनुष्य के द्वारा आज्ञापालन किये जाने को महत्त्व देना उसकी स्वतंत्रता का हनन नहीं है? यह साफ है कि तर्क का वाहन बुद्धि ही होता है और प्रत्येक की अपनी-अपनी बुद्धि के विकास के स्तर भिन्न-भिन्न होते हैं और यह भी सही है कि अपूर्ण व्यक्तियों की बुद्धि भी पूर्ण नहीं होती है। अपूर्ण बुद्धि वाले को तर्क के आधार पर पूर्ण समाधान मिल जाय-यह भी संभव नहीं है। तर्क की गति बुद्धि तक और बुद्धि की गति उस व्यक्ति के आत्म-विकास तक, फिर वह व्यक्ति उससे आगे किस आधार पर निर्णय ले—यह एक ज्वलंत प्रश्न उठ खड़ा होगा। या तो वह उस बिन्दु तक पहुँच कर अपनी गति को विराम दे दे या अनसोचे वातावरण में और अविचारित योजना के साथ अंधे जंगल में वह अपनी गति को मोड़ दे दे? क्या दोनों बातें सही होगी? गति का विराम भी गलत और विगति भी गलत । तब क्या किया जाय ?
आगे भी प्रारंभिक आश्रय तो तर्क का ही लिया जायेगा। यह होगा व्यक्ति की विश्वसनीयता जांचने का तर्क। कल्पना करें कि एक व्यक्ति के साथ आपका बीसों बार काम पड़ा
और हर बार उसकी बात पूरी सच निकली। उसके बाद उसकी बात की विश्वसनीयता आप कैसी मानेंगे? कहेंगे तर्क की जरूरत नहीं है, हम उसे सही ही मानते हैं। यदि उसकी विश्वसनीयता की गहराई और अधिक हुई तो भले ही आप तार्किक हों पर इतना तक कह देंगे-आप क्यों टोकते हैं ? मैं तो उसकी बात आंख मींच कर मानता हूँ।
इस बिन्दु पर मैं यह कहना चाहूंगा कि तर्क से जब हम सन्तुष्ट हो जाते हैं तब आस्थावान बन जाते हैं। फिर तर्क छोटा पड़ जाता है और आस्था बहुत बड़ी हो जाती है। उस वृहदाकार आस्था में कोई तर्क उठावे तो आप उसे बचकानापन ही मानेंगे।
तो प्रारंभिक तर्क से हम यह जानने का यल करते हैं कि उस व्यक्ति का भव्य स्वरूप कैसा हो सकता है जिसने अपनी आत्मा का पूर्ण विकास सिद्ध कर लिया हो। यह अध्ययन और तर्क का विषय होगा। ये कसौटियाँ वीतराग देव के स्वरूप पर कसकर जब आप सन्तुष्ट हो जायेंगे तब आप उनकी आज्ञा की वास्तविकता एवं सार्थकता के प्रति भी सन्तुष्ट हो जायेंगे। जिस विधि विधान पर उन्होंने अपनी सफल आत्मसाधना की और स्वानुभव से जो आनन्द उन्होंने प्राप्त किया, उसे ही उन्होंने सर्व जगत् कल्याण हित प्रकट कर दिया। यह प्रकटीकरण बिना किसी पक्षपात या भेदभाव के समान रूप से उन्होंने किया। उनकी आज्ञाएं ऐसी ही हैं जैसी कि सूरज की धूप होती है या चंदा की चांदनी। इन सब पर किसी का एकाधिकार नहीं होता यानी कि वे सबकी होती हैं और सबको सम्यक् ज्ञान, दर्शन व चारित्र की प्रेरणा देती है। अब प्रश्न है इन आज्ञाओं के प्रति आस्था
का।
मैं विचारता हूँ कि तर्क और आस्था का अन्तर स्पष्ट हो गया है। तर्क निरूपयोगी नहीं होता और आस्था कभी अंधी नहीं होनी चाहिये। जहाँ तक मेरी बुद्धि और मेरा विवेक दौड़ सकता है, वहां तक मेरा विचार है कि मेरा तर्क भी दौड़ना चाहिए किन्तु अन्तर यही है कि तर्क के दौड़ने की सही सीमा मेरी अपनी बुद्धि और मेरे अपने विवेक से आगे बहुत कम रहती है। बस इतनी ही कि वह मोटे तौर पर विश्वसनीयता की समस्या को भली प्रकार से समझ ले और उसका सही समाधान निकाल ले। मैंने अनुभव किया है कि आस्था के आगे तर्क सदा ही झुकता आया है
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