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विशुद्धता व्याप्त हो जायेगी कि अपने इस जीवन के अन्त में मरण को सुधार कर सारे जीवन और आगामी भव को भी वह सुधार लेगी। विनय समाधि से मैं जितेन्द्रिय बनूंगा। श्रुत समाधि से ज्ञान प्राप्ति के लिए, चित्त को एकाग्र करने के लिए, विवेक पूर्वक धर्म में दृढ़ता प्राप्त करने के लिए तथा स्वयं स्थिर होकर दूसरों को धर्म में स्थिर करने के लिए मैं स्वाध्यायी बनूंगा। तप समाधि की दृष्टि से मैं न इस लोक के फल के लिए, न परलोक के फल के लिए और न कीर्ति, वाद, प्रशंसा या यश के लिए तप करूंगा, बल्कि मात्र निर्जरा के लिए ही तप करूंगा। मेरी आचार समाधि का उद्देश्य भी आश्रव निरोध और कर्म क्षय ही होगा। मैं मानता हूँ कि मन, वचन और काया से शुद्ध बन कर जो व्यक्ति संयम में अपनी आत्मा को सुस्थिर बनाता है और चारों प्रकार की समाधियों को प्राप्त कर लेता है, वह अपना तथा सबका विपुल हित करता है एवं अनन्त सुख देने वाले कल्याण रूप परम पद को प्राप्त कर लेता है।
यह मैं मान गया हूँ कि जिसको सम्यक् समाधि जीवन में और सम्यक् समाधि मरण में हो, वह जीवन धन्य हो जाता है। मैं भी ऐसे ही धन्य जीवन की आकांक्षा रखता हूँ।
“एगे आया' की दिव्य शोभा ऐसा सम्यक् समाधिमय जीवन और मरण ही 'एगे आया' (एकात्मा) की दिव्य शोभा का प्रतीक होता है। एकात्मता का अर्थ है सभी आत्माओं की समानता । जो निरन्तर ज्ञान आदि पर्यायों को प्राप्त होता है, वह आत्मा है एवं सभी आत्माओं का ज्ञान, उपयोग या चैतन्य रूप लक्षण एक है अतः ‘एगे आया' का सम्बोधन किया गया है।
मेरा विचार है कि यह सम्बोधन अतीव महत्त्वपूर्ण है। इस सम्बोधन में न केवल संसार की समस्त आत्माएँ सम्मिलित है, अपि सिद्ध आत्माएँ भी सम्मिलित हैं। चैतन्य गुण सभी आत्माओं का है। गुण की दृष्टि से सभी बद्ध एवं बुद्ध आत्माओं में एकरूपता है। न्यूनाधिक विकास की दृष्टि से पर्याय भेद होता है किन्तु पर्याय भेद से स्वरूप भेद नहीं होता। इस दृष्टिकोण की महत्ता इस सत्य में समाहित है कि संसार में परिभ्रमण करने वाली आत्मा अपने अष्ट कर्मों को क्षय करके परमात्मा बनती है। आत्मा ही परमात्मा बनती है जिसका मूल सन्देश यह है कि परमात्मा अर्थात् मुक्त ईश्वर बनने का सामर्थ्य मेरी अपनी आत्मा और संसारी आत्माओं में रहा हुआ है। यह सन्देश ही संसारी आत्माओं के लिए पुरुषार्थ का प्रबल प्रेरणा स्रोत है कि ईश्वरत्व इस आत्मा से ऊपर कोई शक्ति नहीं है। इसलिए मेरे मन में यह उत्साह समा जाता है कि मूल स्वरूप से मैं भी ईश्वर हूं और ईश्वर बन सकता हूँ, काश कि ईश्वर बनने का मेरा आत्म-पुरुषार्थ पूर्ण रूप से सफल बन जाय। आत्मा अलग है और ईश्वर अलग है ऐसा जो मानते हैं, वे आत्म-पुरुषार्थ का द्वार ही बंद कर देते हैं
और आत्म-विकास की भावना को हताशा में डुबो देते हैं। यदि यह विचार जम जाय कि मैं सर्वशक्तिमान् नहीं हो सकता तो मैं निराश हो जाऊंगा कि मैं कोई भी शक्ति अर्जित नहीं कर सकूँगा। अतः आत्मा से परमात्मा बनने की धारणा ही वास्तविक धारणा है जो संसारी आत्माओं को समाधिस्थ होने की प्रेरणा देती है कि यह समाधि ईश्वरत्व की पूर्ण समाधि में परिवर्तित हो सकती है और जो प्राप्ति हो सकती है, उसके लिए ही सम्पूर्ण पुरुषार्थ लगा देने की उमंग सदा बनी रहती है। यही पुरुषार्थ को प्रबल बनाये रखने का प्रगतिशील पाथेय है।
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