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ओर उसकी इच्छा हो अथवा यह भी हो सकता है कि स्वामी को सोया देखकर सारथी भी सो जाय। फिर क्या है ? घोड़े ही जो ठहरे उछल कूद मचाते हुए अपनी चाल से चलने लग जाय - रास्ते का ध्यान ही छोड़ दें । जिधर हरी हरी घास देखी उधर मुंह मोड़ दिया। किसी और तरफ ललचाये कि उधर चल दिये। वे न तो गंतव्य का ध्यान रखेंगे और न मार्ग या दिशा का । वे उल्टी दिशा में भी मुड़ जाय तो उनको रोकेगा ही कौन ? वे घोड़े मस्त होकर रथ को बीहड़ में भटका सकते हैं। तो गढ्ढों में पटक कर उसको क्षत-विक्षत कर सकते हैं। रथ के नष्ट होने की दशा में भी स्वामी नहीं जागे – वह बड़ी दयनीय दशा हो जाती है। अंत तक भी स्वामी चेत जाय तब भी कुछ बचाव हो सकता है। किन्तु यह विदशा की कहानी है ।
अब मैं इसके परिप्रेक्ष्य में अपनी ही हकीकत को देखना चाहता हूं। यह रथ है मेरा शरीर, जिसमें मेरा 'मैं' बैठा हुआ है— मेरी आत्मा । मेरे रथ का सारथी है मेरा मन और पांचों घोड़े हैं मेरी पांचों इन्द्रियाँ। इस, में कोई सन्देह नहीं कि मेरा रथ चल रहा है किन्तु विचारणीय विषय ये हैं कि क्या मेरा 'मैं' अपने रथ को भलीभांति देख रहा है ? क्या उसकी अपलक दृष्टि अपने सारथी पर लगी हुई है ? क्या उसकी पैनी नजर रथ के घोड़ों पर भी लगी हुई है ? और सबसे बड़ी बात यह कि क्या रथ गंतव्य स्थान तक पहुंचाने वाले मार्ग पर चल रहा है अथवा मार्ग से भटक कर कुमार्ग पर या अमार्ग पर ? इन सारी परिस्थितियों की जांच मेरे 'मैं' को करनी है क्योंकि रथ का स्वामी वही है और रथ स्वस्थ एवं सुन्दर गति से प्रगति करे – यह दायित्व भी उसी का है ।
लेकिन जब मैं इतना सोचने के लिये बैठता हूं तो यह निश्चय मान सकता हूं कि मेरे 'मैं' में अवश्य जागरण की किरणें फैल रही हैं और यह सुव्यवस्था तथा प्रगति के लिये शुभ लक्षण है । मेरा 'मैं' जाग रहा है जिसका अर्थ है कि मैं जाग रहा हूं और रथ में बैठा हुआ मैं जाग रहा हूं तो सबसे पहले मेरी दृष्टि मेरे सारथी पर ही गिरनी चाहिये। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात भी यही है । मैं राजा हूं, हर कर्मचारी से मैं सीधा क्यों भिडूं ? अपने दीवान को ही ऐसी झाड़ पिलाऊं कि वह तुरन्त कर्त्तव्य परायण हो जाय क्योंकि दीवान अपना काम सम्हाल लेगा तो मुझे फिर किसी दूसरे को देखने की जरूरत नहीं रहेगी। दीवान पर नजर रखने से ही मेरा काम भली प्रकार चल जाएगा ।
मन को मैं सम्हालूं, मन को मैं जांचूं परखूं, मन पर अपना पक्का काबू बनाऊं और मन को मैं अपनी मर्जी से चलाऊँ — यह सारा निग्रहकारी काम मुझे ही करना है। यह एकदम सही है कि मन ही मनुष्य के बंध और मनुष्य के मोक्ष का कारण है । मन रूपी सारथी को एकाग्र बना लिया तो घोड़ों की क्या हिम्मत कि वे अपनी चाल तो दूर, नजर को भी इधर उधर करें ? मम मजबूत तो आत्मा की सुदृढ़ता को भी कौन डिगा सकेगा ? एक मन को जीत लें तो पांचों इन्द्रियां स्वतः ही जीत ली जायगी इस प्रकार पांच इन्द्रियां कषाय और एक मन (आत्मा) दसों को भी जीत लिया जायगा । जब मन एकाग्र हो जाता है— गंतव्य की दिशा में आगे बढ़ने को एकनिष्ठ, तब रथ भी सन्तुलित चलता है तो रथ का स्वामी भी धर्मानुष्ठानों में सन्तुष्ट रहकर संलग्न हो सकता है। कारण, मन एकनिष्ठ तो वचन एकनिष्ठ और मन वचन एकनिष्ठ तो सकल प्रवृत्तियाँ एकनिष्ठा से प्रवर्तित होगी । फिर आत्मा को अपना समग्र पुरुषार्थ नियोजित करने में किसी भी प्रकार का व्यवधान कहाँ से आवेगा ?
आत्म विकास की इस महायात्रा में जो घातक व्यवधान उत्पन्न होते हैं, वे मूल रूप में अपनी ही आन्तरिकता से उत्पन्न होते हैं, क्योंकि बाहर से आने वाली भीषण से भीषण बाधा या
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