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जब मुझे घेर लेगी तब कोई भी आगे बढ़कर मुझे उनसे छुटकारा नहीं दिला सकेगा। मैं अपनी सब बाहरी शक्तियों को नाथ समझकर तो अनाथ हो जाऊंगा ।
तो मैं क्या करूं? किसकी शरण में जाऊं जो मेरे दुःखों का हरण करें ? क्या मेरे लिये कोई शरण नहीं है? है, किन्तु बाहर कोई नहीं । मेरा 'मैं' ही मेरी शरण है, मेरा सुधर्म ही मेरी शरण है। मैं अपने धर्म में रमण करूं तो मैं भी अनाथी मुनि के समान सनाथ हो सकता हूं। मेरी शरणहीनता मेरी भावनाओं में है और मेरी ही शुभता में परिवर्तित भावनाएं मुझे निर्भय शरण प्रदान कर सकती है। जब मैं अनुभव करता हूं और अशरण भावना से भावित बनता हूं तो मेरी धर्म मेंअपने आत्मोस्थान में और लोकोपकार में अभिरुचि सुदृढ एवं अभिवृद्ध बन जाती है।
संसार के रंगमंच पर
इस संसार के रंगमंच पर मैं और अन्य संसारी प्राणी अभिनेता की तरह अपना-अपना अभिनय दिखा रहे हैं। अपने-अपने कर्मों से प्रेरित होकर विविध जन्मों में विविध शरीर धारण कर रहे हैं और सांसारिकता से पूर्ण अपनी लीलाएं बता रहे हैं। एक जन्म में जो किसी की माता बनती है, वही दूसरे जन्म में उसकी स्त्री बन जाती है। इसी प्रकार पिता पुत्र और पुत्र पिता तथा स्वामी दास और दास स्वामी बन जाते हैं। संसार की विचित्रता इतनी ही नहीं हैं। एक जन्म जो राजा होता है, रंक बनते देखा जाता है और रंक व्यक्ति राज्य पद को पा लेता है। भांति-भांति के विचित्र परिवर्तन यहाँ देखे जा सकते हैं।
अन्य प्राणियों के समान मैं भी इस संसार में अनादिकाल से जन्म मरण के चक्र में घूम रहा हूं और भयावह दुःखों को सह रहा हूं। मैं अपने अनन्त जन्मों में संसार के सभी क्षेत्रों में रहा हूं, सभी गतियों में घूमा हूं तथा सभी जातियों व कुलों में जन्मा हूं। इस प्रकार कभी न कभी प्रत्येक प्राणी से मेरा सम्बन्ध जुड़ा है जिससे सभी प्राणी मेरे आत्मीय बने हैं। कर्मवश परिभ्रमण करते हुए मैंने लोकाकाश के एक एक प्रदेश को अनन्ती बार व्याप्त किया परन्तु उसका अन्त नहीं आया । नरक योनियों के भीषण दुःख मैंने सहे, तिर्यंच योनियों के क्षुधा, प्यास, रोग, वध, बन्धन, ताइन, भारारोपण आदि के कष्ट मैंने भुगते, देवयोनि के शोक, भय, ईर्ष्या आदि से भी मैं पीड़ित हुआ तथा इस मानव जीवन के नानाविध ताप – सन्ताप तो मेरे सामने हैं। फिर भी इन दुःखों का अन्त कहाँ ? क्या कहीं भी अमिट सुख का अनुभव होता है ? क्या किसी भी अवसर पर आत्मशान्ति मिली
है ?
यह सत्य है कि मुझे इस संसार में न तो दुःखों का अन्त दिखाई देता है और न ही अमिट सुख तथा आत्मशान्ति का अवसर । संसार में ऐसा एक भी मनुष्य या प्राणी नहीं दिखाई देता है जो सर्व प्रकार के सुखों को भोग रहा हो । कहीं युद्ध है तो कहीं महामारी, कहीं दुष्काल है तो कहीं द्वन्द्व-संघर्ष। किसी को घनाभाव है तो किसी को रोगग्रस्तता, कोई भयाकुल है तो कोई वियोग कष्ट
कष्ट । सभी जगह अशान्ति है, सभी कोई सन्ताप संत्रस्त हैं। क्या मैं भी अशान्त और सन्ताप संत्रस्त ही रहूंगा ? नहीं, मैं इस संसार में नहीं, अपनी ही आत्मा में शान्ति और सुख की खोज करूंगा तथा अपनी शुभ भावनाओं के आधार पर उन्हें प्राप्त करके रहूंगा ।
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