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कठिनाई भी एक साधक को विचलित नहीं कर सकती है, यदि उसका मन मजबूती से सधा हुआ हो। मन को कैसे साधे—यही मेरे सम्मुख सबसे बड़ा प्रश्न है।
अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरी आत्मा में जागरण की जो कमी रही है, उसके कारण सांसारिक विषयों में उसकी अधिक अभिरुचि रहती आई है। उसकी अभिरुचि की ही छाप मन और इन्द्रियों पर पड़ती आई है अतः सारी नियंत्रणहीनता फैली हुई है भीतर की प्रशासन व्यवस्था में। अब मैं जाग रहा हूं-यह ठीक है लेकिन मुझे सारी प्रशासन व्यवस्था को जगानी और सुचारू बनानी होगी और उसके लिये सर्वप्रथम मन को साधना पड़ेगा। इसको साधने का पहला चरण यह होगा कि मन की गति की दिशा बदल दी जाय । सांसारिक अभिरुचि के विषय-कषायों में जो मन की गति बनी हुई है—पहले तो उसका इस रूप में निग्रह करूं कि उस दिशा में उसे न जाने दूं—प्रवृत्ति के चक्र को विपरीत दिशा में घुमाऊं, उसे निवृत्ति की ओर मोडूं।
___तो मेरा पहला काम यह हो कि मैं मेरे मन की सांसारिक विषयों में प्रवृत्ति को निवृत्ति में बदलूं —वह संसार की दिशा में दौड़ना बंद करदे । किन्तु क्या मन का दौड़ना मैं कभी भी बंद कर सकूँगा? मन बहुत ही चंचल और सदा गतिशील होता है। उसकी दौड़ कभी बन्द नहीं होगी। इसलिये उसकी निवृत्ति का अर्थ होगा -संसार के विषय कषायों से निवृत्ति, किन्तु तत्काल ही उसकी प्रवृत्ति का भी प्रबंध करना होगा कि उसे आध्यात्मिक, धार्मिक तथा लोकोपकार के क्षेत्रों में प्रवृत्ति कराई जाय। मन की दौड़ न तो बंद की जा सकती है, न बंद होती है। करना यह है कि सिर्फ मन की दौड़ की दिशा बदल दी जाय। अभी वह पश्चिम में दौड़ रहा है तो उसे पूर्व में दौड़ाना शुरू करा दिया जाय। एक प्रवृत्ति से निवृत्ति तथा दूसरी निवृत्ति से प्रवृत्ति ये यों तो मेरे दो काम होंगे लेकिन होगा असल में एक ही काम कि मन की गति की दिशा बदल दी जाय ।मन दौड़ता रहे—यह मुझे अभीष्ट होगा, मगर गंतव्य की दिशा में दौड़े।
मन को इस प्रकार एक दिशा में निवृत्ति तथा दूसरी दिशा में प्रवृत्त कराने का काम मेरे लिये कोई आसान काम नहीं होगा। वह बार-बार पश्चिम में छलांग लगायगा और मुझे उसकी टांग पकड़-पकड़ कर पूर्व में धकेलना पड़ेगा। यह कशमकश लगातार और लम्बे अर्से तक चलती रहेगी। यह अवधि ही यथार्थ रूप में मेरा परीक्षा काल होगा। मैं मन को अपने काबू में कर ही लेता हूं या कि मन के आगे मैं अपनी हार मान जाता हूं-उसी रूप में मेरी परीक्षा का परिणाम सामने आवेगा। अतः प्रत्येक प्रतिभावान विद्यार्थी के समान मुझे भी इस परीक्षा में इसी कठिन संकल्प के साथ जुटना होगा कि मैं परीक्षा में सफल बनूं ही।
परीक्षा की इन घड़ियों में मुझे अतीव कठोर परिश्रम करना होगा। जब-जब मन अपने मनोज्ञ और रुचिकर भोग-विषयों की ओर अथवा तज्जन्य काषायिक वृत्तियों की ओर बढ़ने लगे, तब-तब मुझे उन विषयों से उसे दूर करते रहना पड़ेगा ताकि तज्जन्य काषायिकता उत्त्पन्न ही न हो। सोचें कि मन शब्द, रूप, गंध, रस या स्पर्श के मनोज्ञ पदार्थ को भोगने की इच्छा करे कि अमुक गाना सुनूं या अमुक रूप देखू या कि अमुक रस चलूँ तो तत्काल मुझे उसे उस गाने, रूप या भोजन से वंचित कर देना होगा। निग्रह के इस उपाय को बार-बार प्रयोग में लाने से तथा आध्यात्मिक चिन्तन में उसे लगा देने से उसकी इच्छाओं का अन्त होता जायगा। धीरे-धीरे उसकी एक ओर से निवृत्ति और दूसरी दिशा में प्रवृति सुचारू बनती जायगी। किन्तु ऐसा मेरी निर्मम कठोरता से ही हो
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