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(५) सम्मोही भावना - पांच प्रकार (अ) उन्मार्ग देशना - आज्ञा के विपरीत मार्ग का उपदेश देना । (ब) मार्ग दूषण – सन्मार्ग व सत्साधुओं में मन कल्पित दोष बताना । (स) मार्ग विप्रतिपत्ति—दूषण लगाकर उन्मार्ग को अंगीकार करना । (द) मोह-गहन ज्ञानादि विषयों में ना समझी से मोह करना तथा अन्ययतियों के आडम्बर से ललचाना। (य) मोह जनन – किसी भी उपाय से अन्य मत में दूसरों का मोह पैदा कराना । इस प्रकार ये कुल पच्चीस भावनाएं चारित्र में विघ्न रूप हैं। इन के निरोध से सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है।
सद्गुण ग्रहण करने की अभिलाषा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये निम्न चार प्रकार की भावनाओं का चिन्तवन करना अति आवश्यक माना गया है
(१) मैत्री भावना – मैं प्रत्येक प्राणी को अपने समान और अपना ही समझं ताकि मैं सभी प्राणियों के प्रति अहिंसक एवं सत्यवादी बन सकूं। मैं जब सभी प्राणियों को अपने आत्मीय जन मानूंगा तब किसी को दुःखी करने की वृत्ति ही मेरे मन में नहीं उपजेगी बल्कि किसी भी दुःखी प्राणी को देखकर मैत्री भावना से भर कर उसके कष्ट दूर करने का यत्न करूंगा। यह मैत्री भावना मुझे स्वस्थ और प्रसन्न रखेगी तो दूसरों को भी सुख और शान्ति प्रदान करेगी।
मैं दूसरों के साथ यह स्मरण करके अपने मैत्री भाव को पुष्ट बनाऊंगा कि ये सभी किसी न किसी जन्म में मेरे माता, पिता, पुत्र भाई, स्त्री, बहिन, आदि रह चुके होंगे अथवा कभी आगामी जन्मों में इस प्रकार के सम्बन्ध बन सकते हैं । सब प्राणियों के अपने प्रति व्यक्त अथवा अव्यक्त उपकार को समझना तथा उपकारी मान कर मैत्री भाव को बढ़ाना मैं अपना कर्त्तव्य मानूंगा। यही भावना मुझे विश्व-बंधुत्व की विशालता के दर्शन करायगी ।
(२) प्रमोद भावना - मैं अपने से अधिक गुण सम्पन्न महापुरुषों के दर्शन करके तथा उनके प्रति लोगों द्वारा प्रकट किये जाने वाले मान, सत्कार, पूजा, प्रतिष्ठा के भावों को जान करके अतीव प्रमुदित होऊंगा। सामान्य लोग ऐसे अवसर पर ईर्ष्या या जलन का अनुभव करते हैं किन्तु मैं जानता हूं कि ईर्ष्या या जलन करने वाला सच्चा अहिंसक नहीं बन सकता है। ईर्ष्या बहुत बड़ा दुर्गुण हैं जो मनुष्य को पतित बनाता है। अतः मैं उन सभी पुरुषों का सम्मान करूंगा-गुण गाऊंगा जो विद्या, तप, यश आदि गुणसम्पन्नता से विभूषित होंगे। मैं सोचता हूं, मैं चाहता हूं कि मेरी गुणसम्पन्नता से सभी हर्षित हों और मेरी उन्नति से सभी प्रसन्न बनें तो पहले मुझे ही अपनी ऐसी वृत्ति बनानी होगी। मैं ईर्ष्या नहीं करूंगा तो मैं भी ईर्ष्या का पात्र नहीं बनूंगा। अपने में और दूसरों में मैं प्रमोद भावना का अधिकतम विस्तार करना चाहूंगा ।
(३) करुणा भावना - यदि शारीरिक अथवा मानसिक दुःखों से दुःखित प्राणियों को देखकर मेरा मन दया, अनुकम्पा और करुणा से द्रवित नहीं हो जाता है तो मुझे यह समझना पड़ेगा कि अभी मेरे अहिंसक बनने में काफी कमी है। मैं तो इस भावना को सुदृढ़ बनाऊंगा कि मैं दीन, अपंग, रोगी और निर्बल लोगों की सेवा करूं, विधवा और अनाथ बालकों को सहायता दूं, अतिवृष्टि या अनावृष्टि के कारण अकाल के समय असहाय लोगों के खाने पीने का प्रबंध करूं, बेघर लोगों को शरण दूं, महामारी के समय लोगों को औषधियां पहुंचाऊं, स्वजन वियुक्त लोगों को उनके स्वजनों से मिलाऊं, भयभीत प्राणियों के भय को दूर करूं, वृद्ध व रोगी पशुओं की सार-संभाल करूं और यह मानूं कि मेरे मनोबल, धन तथा शरीर बल की सार्थकता ही करुणा एवं करुणा प्रभावित शुभ कार्यों
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