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अध्याय छ: आत्म-समीक्षण के नव सूत्र
सूत्र : ५ :
मैं समदर्शी हूँ, ज्योतिर्मय हूँ! मुझे सोचना है कि मेरा मन कहाँ-कहाँ घूमता है, वचन कैसा-कैसा निकलता है और काया किधर-किधर बहकती है?
अन्तर्योति के जागरण से मुझे प्रतीति होगी कि अंधकार की परतों में पड़ा हुआ मेरा मन भौतिक सुख-सुविधाओं की ही प्राप्ति हेतु विषय-कषायों में उलझकर कितना मानवताहीन, वचन कितना असत्य-अप्रिय तथा कर्म कितना विद्रूप-अधर्ममय हो गया है? मैं दृढ़ संकल्प के साथ मन, वचन एवं काया के योगों को सम्पूर्ण शुभता की ओर मोड़ दूंगा तथा भावनाओं के धरातल पर समदर्शी बनने का प्रयास करूँगा।
सारा