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कुल साठ -पांचों विषयों के सचित्त, अचित्त तथा मिश्र के भेद से पन्द्रह और पन्द्रह अपनी शुभता व अशुभता से तीस तथा राग और द्वेष से साठ। (स) घ्राणेन्द्रिय के विषय –(१) सुगंध एवं (२) दुर्गंध । विकार बारह —दोनों के सचित्त, अचित्त एवं मिश्र के भेद से छः तथा इन पर राग और द्वेष से बारह। (द) रसनेन्द्रिय के विषय—(१) तीखा (२) कडुआ (३) कषैला (४) खट्टा और (५) मीठा। विकार साठ -पांचों विषयों के सचित्त, अचित्त व मिश्र रूप से पन्द्रह तथा पन्द्रह अपनी शुभता और अशुभता से तीस तथा तीस पर राग और द्वेष से साठ हुए। (य) स्पर्शेन्द्रिय के विषय-(१) कर्कश (२) मृदु (३) लघु (४) गुरु (५) स्निग्ध (६) रूक्ष (७) शीत और (८) ऊष्ण। विकार छियान्वे-आठ विषयों के सचित्त, अचित्त और मिश्र रूप से चौबीस तथा चौबीस अपनी शुभता और अशुभता से अड़तालीस तथा राग और द्वेष से छियान्वे । इस प्रकार सब मिलकर २४० विकार हुए।
____ मैं उपरोक्त विश्लेषण की कुछ गहराई में उतरना चाहता हूं। पांचों इन्द्रियों के जो अपने अपने विषय हैं, उन्हें ग्रहण करना उनका स्वभाव है और इसे सामान्य स्थिति ही मानेंगे। जैसे कि आंख का विषय है रंगों को देखना। जो रंग उनके सामने आवेंगे, वे उनके दृष्टि पथ से गुजरेंगे। जहां तक समक्ष आये हुए दृश्य पटलों का आंखों के दृष्टि पथ से सामान्य रीति से गुजरने का सवाल है, वहां तक कोई बराई की बात नहीं है। बराई वहां से पैदा होती है जहां से आसक्ति शरू होती है। कल्पना करें कि आंखों के सामने कोई सुन्दर रूप आया, उसे एक तो आंखों ने स्वभावगत सामान्य रीति से देख लिया और वे अप्रभावित-सी रही और दसरे. आंखों ने उस सन्दर रूप को देखा, देखते रहने की कामना जागी और देखकर व्यामोह-सा होने लगा-आकर्षण पैदा हो गया तो समझें कि वह उन आंखों का आसक्ति भाव है। यह आसक्ति मन्द होगी तो आंखें उसे देखती हुई कुछ तप्ति या कुछ अतृप्ति लेकर आगे बढ़ जायगी। यदि वह उग्र होगी तो वह वचन में उतर सकती है या काया के हाव-भाव में भी उतर सकती है। वैसी आसक्ति कोमल व्यवहार से अपनी कामना पूर्ति कर सकती है अथवा क्रूर व जघन्य रूप भी धारण कर सकती है। इस आसक्ति के उग्र रूप कई प्रकार के हो सकते हैं।
__ तो मैं मानता हूं कि इन्द्रियों के विषय इतने मुख्य नहीं, जितने उनमें आसक्ति के भाव मुख्य होते है। और यह आसक्ति मन का विषय बन जाती है। मन को जब बल मिलता है तो ये इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयो का सेवन करने में अंधी और बावली हो जाती है। यह अंधापन और बावलापन अधःपतन की कितनी नीची हद तक पहुंच सकता है. इसके दृश्य संसार मे चारों ओर नजर में आते रहते हैं। इन्द्रियों का यह अंधापन और बावलापन दो तरीकों से फूटता हैं। एक तो आंखों के सामने सुन्दर रूप आता है तब फूटता है और दूसरा जब आंखों के सामने इतना असुन्दर रूप आ जाय कि बरबस घृणा व ग्लानि जाग उठे, तब भी फूटता है। किन्तु इन दोनों तरीकों के फूटने में विपरीत अन्तर होता है। एक अंधापन और बावलापन तो फूटता है राग भाव से तथा दुसरा फटता है द्वेष भाव से। मनोज्ञ याने मन को भावे ऐसे रूप पर राग जागता है और वह रूप मन को लभाता है तो अमनोज याने मन को नहीं भावे ऐसे रूप पर द्वेष भाव से घणा और ग्लानि जागती है। यद्यपि प्रवत्तियाँ विपरीत दिशाओं में होती है किन्तु राग और द्वेष दोनों प्रकार की मनःस्थितियों में मन, वचन, काया की अशुभ हलचल होती है। यह अशुभता ही ऊपर विकारों के रूप में वर्णित की गई है।
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