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करना (१०) आदरणा —(आचरणा) मायाचार से किसी का आदर करना तथा ठगाई के लिए अनेक प्रकार की क्रियाएँ करना (११) गूहनता अपने स्वरूप को छिपाना (१२) वंचनता–दूसरों को ठगना (१३) प्रतिकुंचनता -सरल भाव से कहे हुए वचन का खंडन करना अथवा उल्टा अर्थ लगाना (१४) सातियोग–उत्तम पदार्थ के साथ तुच्छ पदार्थों की मिलावट करना। इस प्रकार मायावी पुरुष लोगों को रिझाने के लिए कपट करने वाला, महापुरुषों के प्रति स्वभाव से ही कठोरता का व्यवहार करने वाला, बात बात में नाराज और खुश होने वाला, गृहस्थों की चापलूसी करने वाला, अपनी शक्ति का गोपन करने वाला तथा दूसरों के विद्यमान गुणों को भी ढांकने वाला होता है। वह चोर की तरह सदा सभी कार्यों में शंकाशील बना रहता है तथा कपटाचारी होता है। मूल कषाय की दृष्टि से माया के भी चार भेद कहे गये हैं - (१) अनन्तानुबंधी माया- जैसे बांस की कठिन जड़ का टेढ़ापन किसी भी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार जो माया किसी भी प्रकार दूर न हो तथा सरलता रूप में परिणत नहीं हो सके। (२) अप्रत्याख्यानावरण माया—जैसे मेढ़े का टेढ़ा सींग अनेक उपाय करने पर बड़ी कठिनाई से सीधा होता है, उसी प्रकार जो माया अत्यन्त परिश्रम से दूर की जा सके। (३) प्रत्याख्यानावरण माया—जैसे चलते हुए बैल के मूत्र की टेढ़ी लकीर सूख जाने पर हवा आदि से मिट जाती है, उसी प्रकार जो माया सरलतापूर्वक दूर हो सके। (४) संज्वलन माया छीले हुए बांस के छिलके का टेढ़ापन बिना प्रयत्न के सहज ही में मिट जाता है, वैसे ही जो माया बिना परिश्रम के शीघ्र ही अपने आप दूर हो जाय।
क्रोध और मान की तरह ही माया के भी चार प्रकार (१) आभोग निवर्तित (२) अनाभोग निवर्तित (३) उपशान्त और (४) अनुपशान्त कहे गये हैं।
जीर्ण न होने वाला लोभ (४) लोभ-द्रव्य आदि विषयक इच्छा, मूर्जा, ममत्त्व-भाव, तृष्णा एवं असन्तोष रूप आत्मा के परिणाम विशेष को लोभ कहते हैं। लोभ कषाय सभी तरह के पापों का आश्रय होती है। लोभ के पोषण के लिए लोभी माया का सहारा लेता है। सभी जीवों में जीने की इच्छा प्रबल होती है और सभी मृत्यु से डरते हैं, लेकिन लोभ इसके विपरीत ऐसे कार्यों में प्रवृत्ति कराता है जिनमें सदा मृत्यु का खतरा बना रहता है। यदि मनुष्य ऐसी प्रवृत्ति में मर जाता है तो लोभ वृत्ति के परिणाम स्वरूप उसे दुर्गति में भीषण दुःख भोगने पड़ते हैं। ऐसी अवस्था में उसका यहाँ का सारा शुभ परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। यदि लोभ से लाभ भी हो गया तो उसके भागी अन्य ही होते हैं। लोभी इतना नीच भी बन जाता है कि उसे स्वामी, गुरु, भाई, वृद्ध, स्त्री, बालक, क्षीण, दुर्बल, अनाथ आदि तक की हत्या करने में भी हिचकिचाहट नहीं होती है। यों कह सकते हैं कि नरक गति के कारणरूप जितने दोष बताये गये हैं, वे सभी दोष लोभ से प्रकट होते हैं। लोभ को दूर करना है तो उसका एक ही सबल उपाय है और वह है सन्तोष। इच्छाओं का संयमन करके ही लोभ का परिहार किया जा सकता है।
लोभी मनुष्य सदा ही अर्थपरायण होता है। वह तीन मनोवृत्तियों के चक्र में ही चक्कर काटता रहता है—(१) धन-लाभ की धुन (२) संग्रह और संचय की रट, तथा (३) स्वार्थ परायणता । हकीकत में धन लोभी के अधिकार में नहीं होता, बल्कि वह खुद ही धन के अधिकार में हो जाता है। वह अपने धन के पागलपन के सामने न सम्बन्धी या मित्र के हित को देखता है
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