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उल्टा पकड़ा हुआ शस्त्र शस्त्रधारी को और मंत्रादि से वश नहीं किया हुआ बेताल तांत्रिक को मार डालता है, उसी प्रकार शब्द आदि विषय वाला साधु धर्म भी वेशधारी द्रव्य साधु को दुर्गति में ले जाता है। जैसे तृण काष्ठों से अग्नि तृप्त नहीं होती, हजारों नदियों के मिल जाने पर भी लवण समुद्र सन्तुष्ट नहीं बनता, उसी प्रकार काम भोगों से भी इस जीव को कभी तृप्ति नहीं हो सकती है। जो आत्मा मनोज्ञ एवं अमनोज्ञं शब्द, रूप, गंध, रस एवं स्पर्श में राग एवं द्वेष नहीं करती है, वही आत्मा ज्ञान, वेद, आचार, आगम, धर्म और ब्रह्म को जानने वाली होती है।
कषाय विकारों की मलिनता
इन्द्रियाँ जो विषय भोग में रत बनती हैं, अपने पीछे विकृत भावनाओं का धुंआ छोड़ती जाती है, वहीं कषाय है। आत्मा के शुद्ध स्वभाव को कषाय मलिन बनाती है। कष अर्थात् जन्म मरण रूप संसार की प्राप्ति जिन विकारपूर्ण वृत्तियों के कारण हो, वे कषाय वृत्तियाँ कहलाती हैं । ये वृत्तियाँ कषाय मोहनीय कर्म के उदय से उत्त्पन्न होती हैं। यह कषाय सम्यक्त्व, श्रावकत्त्व, साधुत्त्व तथा यथाख्यात चारित्र को नष्ट करने वाली होती है।
यह मेरा अनुभव है कि जब इन्द्रियाँ काम भोगों की प्राप्ति की तरफ उन्मुख बनती हैं तो वे उसकी विकृत छाप विचारों पर अवश्य छोड़ती हैं और जब वे काम भोगों में प्रवृत्त होती वलिप्त बनती है तो उस रूप में विकार विचारों को — वृत्तियों को ढालते हैं। यदि किसी के पास काम भोग सामग्री प्रचुरता से उपलब्ध है तो उसके मन-मानस पर अहंकार छा जायगा । यदि उसकी उस उपलब्ध सामग्री को कोई छीनना चाहेगा तो वह क्रोध से भर उठेगा। उपलब्ध सामग्री को संचित करते रहने की वृत्ति उसे लालची बनायगी तो वह अपने लालच की कपटपूर्ण उपायों से पूर्ति करेगा । आशय यह है कि काम भोगों की लिप्तता के साथ कषायों की ज्वालाएं धधकती हैं जो आत्मा के चारित्र गुण को भस्म करती रहती हैं ।
मूल रूप से इस कषाय के चार प्रकार कहे गये हैं जो प्रत्येक प्रकार की कषाय के साथ सम्बन्धित होते हैं- ( १ ) अनन्तानुबंधी - जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता है । यह कषाय सम्यक्च तक की घात कर देता है तथा जीवन पर्यन्त बना रहता है । इस कषाय से जीव नरक गति के योग्य कर्मों का बंध करता है । (२) अप्रत्याख्यानावरण— जिस कषाय के उदय से देश विरति रूप अल्प त्यागप्रत्याख्यान भी नहीं होता है। इस कषाय से श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती । यह कषाय एक वर्ष तक बनी रह सकती है और इससे तिर्यंच गति के योग्य कर्मों का बंध होता है। (३) प्रत्याख्यानावरण - जिस कषाय के उदय से सर्व विरति रूप प्रत्याख्यान रुक जाता है अर्थात् साधु धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। यह कषाय चार मास तक बनी रह सकती है और इसके उदय से मनुष्य गति के योग्य कर्मों का बंध होता है । (४) संज्वलन —– जो कषाय परिषह या उपसर्ग के आ जाने पर मुनियों तक को भी थोड़ा-सा जलाती है। यह हल्की सी कषाय सबसे ऊंचे यथाख्यात चारित्र में बाधा पहुंचाती है। यह कषाय एक पक्ष तक बनी रह सकती है तथा इससे देवगति के योग्य कर्मों का बंध होता है। उपर्युक्त कषायों की स्थिति तथा गति का जो उल्लेख किया गया है, वह बाहुल्यता की अपेक्षा से है क्योंकि इसके अपवाद रूप उदाहरण भी पाये जाते हैं ।
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