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भौंहें तन गई, चेहरा लाल होने लगा और उसके विद्रूप से वचन निकले -महात्मन्, शायद आपने अपना विवेक खो दिया है, तभी तो ऐसी अनर्गल बात कह रहे हैं!
महात्मा का शान्त भाव और गहरा हो गया। वे स्नेह से भी भर उठे, कहने लगे –राजन्, ये लोग भी दुःखी थे और तुम भी दुःखी हो। मुझसे किसी का दुःख नहीं देखा जाता—इसीलिए कह रहा हूँ और तुम इसे अनर्गल बताते हो। राजा कुपित हो उठा—मेरे इस वैभव को देखकर भी आप कहने की हिम्मत कर रहे हैं कि मैं दुःखी हूँ। हाँ राजा, क्या वैभव है तुम्हारा ? धर्मशाला में ही तो रह रहे हो न? महात्मा की यह बात सुनकर तो राजा आपे से बाहर हो गया -आप हद से बाहर जा रहे हैं जो मेरे राजमहल को धर्मशाला बता रहे हैं!
महात्मा तो समदर्शी थे, राजा को भी यथार्थ रूप में सुखी बनाना चाहते थे उसको उसकी ममत्त्व-मूर्छा से दूर हटाकर। बोले—अच्छा, राजन् तुम यहाँ कितने वर्षों से रह रहे हो? राजा बोला—जन्म हुआ तब से। महात्मा ने पूछा-तुम कितने वर्ष के हो ? राजा ने कहा -पैंतीस वर्ष
का। महात्मा पूछते गये – तुम्हारे पिता कब स्वर्ग सिधारे? दस वर्ष पहले। तुम्हारे दादा कब स्वर्ग सिधारे? साठ वर्ष पूर्व। तुम्हारे जन्म से पहले यहाँ कौन रहता था? मेरे पिता रहते थे। उनके पहले कौन रहता था ? मेरे दादा रहते थे। तुम्हारे स्वर्ग सिधार जाने के बाद यहाँ कौन रहेगा? मेरा राजकुमार रहेगा। तब महात्मा ने बात के मर्म को पकड़ा व कहा —तब तुम कैसे कहते हो कि यह राजमहल तुम्हारा है ? तुम्हारे पिता, पिता के पिता, पिता के पिता और कई लोग रहते आये हैं और यहाँ तुम्हारे राजकुमार, राजकुमार के राजकुमार, राजकुमार के राजकुमार और कई लोग रहते रहेंगे- फिर यह राजमहल ही कहाँ रहा ? धर्मशाला नहीं हो गया क्या ? धर्मशाला में क्या होता है
—एक आता है और एक जाता है। आने जाने के क्रम से ही धर्मशाला बनती है और धर्मशाला किसी की अपनी नहीं होती- फिर यह राजमहल तुम्हारा ही कैसे हैं ? ये लोग भी यहाँ क्यों नहीं रह सकते हैं ? जैसे इस धर्मशाला में तुम अपने परिवार सहित रहते हो, वैसे ये लोग भी रह लेंगे।
राजा सुनता रहा, सुनता रहा। उसे कुछ उत्तर देते नहीं बना। महात्मा की समदर्शिता उसकी दृष्टि में उतरने लगी। उसके भीतर के कपाट खुल गये। वह भाव विह्वल होकर महात्मा के चरणों पर लोट गया, झरते आंसुओं से बोला—महात्मन्, आपने मेरी बंद आंखें खोल दी है। मैं अंधा था और यह सब कुछ जो मेरा नहीं है, मेरा मानकर मूर्छाग्रस्त हो रहा था। अब मुझमें और इन लोगों में भेद नहीं है। इन्हें यहीं रहने की आज्ञा दे दीजिये महात्मन्, और आप भी यहीं विराजिये ताकि मेरी आंखें फिर से बन्द न हो। मैं समदर्शिता की प्रकाश किरण देख चुका हूँ।
___ मैं समदर्शी हूँ महात्मा के समान कि मुझे राजा और रंक एक समान दिखाई देते हैं। मैं समदर्शी बनता हूँ राजा के समान कि समदर्शिता का अमृत अहर्निश पीता रहूँ। मैं मिट्टी को सोना समझू और सोने को मिट्टी के समान मानूं। ममत्त्व से ऊपर उठ कर मैं प्रत्येक आत्मा में अपनी ही आत्मा के दर्शन करूं।
मैं समदर्शी हूँ, तभी तो मैं ज्योतिर्मय हूँ। मेरी समता मुझे भीतर बाहर से एक अनूठे आलोक से आलोकित कर देती है। मैं ज्योतिर्मय हो जाता हूँ या यों कहूँ कि मेरे लिये समग्र विश्व ही ज्योतिर्मय हो जाता है। मुझे कहीं भी अंधकार दिखाई नहीं देता-न भीतर, न बाहर । प्रकाश ही प्रकाश फैला है अन्तरंगता में और बहिरंगता में। यह प्रकाश ही मेरा पथ है और पाथेय भी। यह
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