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पांचवां सूत्र
मैं समदर्शी हूँ क्योंकि समदर्शिता मेरी आत्मा का मूल गुण है । मेरी यह समदर्शिता मेरे समभाव से उपजती है और समतामय बन कर पूर्णता प्राप्त करती है। मैं जब समग्र विश्व को समभाव से देखता हूँ, तब मेरी समदृष्टि होती है । समभाव और समदृष्टि एकमेक होकर जब मेरे प्रत्येक कर्म में समाविष्ट हो जाते हैं तब मेरा समूचा जीवन समता से ओतप्रोत बन जाता है। तब मैं न किसी को ऊँचा देखता हूँ, न किसी को नीचा । मैं न किसी का प्रिय करता हूँ, न किसी का अप्रिय। मैं तब अपने पराये के भेद से परे हो जाता हूँ। मेरी समदर्शिता मुझे निरपेक्ष आत्म-दृष्टा बना देती है ।
मैं समदर्शी हूँ क्योंकि मैं सुज्ञ हुआ और संवेदनशील बना। मैं सबको अपना मानने लगा और मैंने अपना अपनत्व सबमें घोल दिया। सब मेरे और मैं सबका हो गया। स्व तथा पर के प्रति मेरी अभिन्न दृष्टि बन गई। मैं समदर्शी हो गया एवं स्वरूप को जान गया तथा उस पर श्रद्धावंत बन
गया ।
मैं समदर्शी हूँ इसलिए सबको - समस्त जीवों को समान भाव से देखता हूँ। सबको देखता हूँ तो अपने को भी देखता हूँ अपनी आत्मा को भी देखता हूँ। अपनी आत्मा के मूल गुणों को भी देखता हूँ तो उसके विकारों को भी देखता हूँ। जब मैं अपनी ही आत्मा के मूल गुणों को देखता हूँ और अपनी समदर्शिता का रसास्वादन करता हूँ, तब अनुभूति लेता हूँ कि मेरे अन्तःकरण में अमृत ही अमृत भरा हुआ है - ऐसा अमृत जो मुझे ही अमर नहीं बना देगा अपितु जहाँ-जहाँ वह झरेगा, वहाँ वहाँ अमरता की अमर बेल को सींचता चलेगा। अमृत झरता है तो अमिट शान्ति का झरना बह निकलता है और उस झरने के शीतल जल का जो भी स्पर्श पा जाता है, वह कृतकृत्य हो जाता है ।
एक समदर्शी महात्मा थे। वे पाद विहार से एक नगर में पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक खुली जगह में कई पुरुष, कई स्त्रियां और कई बालक आश्रयहीन होकर भयंकर शीत से ठिठुरते हुए बैठे थे। उनका हृदय अनुकम्पा से भर उठा। वे उनके पास तक चले गये और बोले – क्या आप लोग निराश्रित हैं ? हाँ महाराज, इसलिये ही तो यहाँ हैं— उन्होंने उत्तर दिया । महात्मा को क्या सूझा सो. उन्होंने कह दिया-आओ, सभी मेरे साथ चलो। वे आगे हो गये और पीछे भीड़ । चलते हुए वे सीधे राजमहल में पहुँच गये। महात्मा आये हैं—यह देखकर राजा ने उनका स्वागत किया किन्तु पीछे आम आदमियों की भीड़ को देखकर झुंझला उठा । वह धैर्य न रख सका और बोल पड़ा आप पधारे सो श्रेष्ठ, किन्तु इन नीच लोगों को अपने साथ यहाँ कहाँ ले आये हैं ? यह मेरा राजमहल है, यहाँ मेरी महारानियाँ रहती हैं, मेरे राजकुमार और मेरी राजकुमारियाँ रहती हैं। इन्हें मेरे यहाँ राजमहल के भीतर तक लाकर आपने शोभनीय कार्य नहीं किया है। महात्मा शान्त भाव से बोले- तुम्हारा विचार समीचीन नहीं है कि यहाँ सब कुछ तुम्हारा ही है। तुम भी यहाँ रह रहे हो, ये लोग भी रह लेंगे । यहाँ बहुत स्थान है – निराश्रित देखकर ही मैं इन्हें यहाँ ले आया हूँ। राजा की
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