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कल्याण के शिखर पर विराजमान होकर तीर्थंकरत्व भी धारण करते हैं । वे सर्वहित में समाहित हो जाते हैं। सर्वहित में समाहित हो जाने वाले महापुरुष ही सर्वोच्च कहे जाते हैं।
तो मैं अपने अन्तःकरण में आकांक्षा रखता हूँ कि मैं भी तीर्थंकर बनूं और मेरी यह आकांक्षा पुरुषार्थमय उत्साह से परिपूरित है। आकांक्षा रखने से ही कोई भी आकांक्षा सफल नहीं हो जाती है अपितु उसके योग्य पुरुषार्थ करने की अपेक्षा रहती है। मैं आशावान हूँ कि मेरी आकांक्षा सफल हो सकती है और इसी कारण मैं परम पुरुषार्थी भी होना चाहता हूँ । मेरे सुदेवों ने मुझे भी सुदेव बन जाने का मार्ग दिखा रखा है और मैं उसी पर चल कर अपनी इस आकांक्षा को पूर्ण करना चाहता हूँ। मैं निम्नानुसार पुरुषार्थ कर सकूं तो मैं भी तीर्थंकर बन सकता हूँ :
(१) मैं उन अरिहन्त भगवान् के गुणों की नित स्तुति करूं और उनकी विनय भक्ति करूं, जिन्होंने चार घनघाती कर्मों का नाश कर दिया और जो अनन्त ज्ञान - दर्शनादि से सम्पन्न बन इन्द्र आदि द्वारा वन्दनीय बन गये ।
(२) मैं उन सिद्ध भगवान् का भी गुणग्राम करूं और उनकी विनय भक्ति करूं जो सकल कर्मों के नष्ट हो जाने से कृतकृत्य हो गये, परम सुख एवं ज्ञान-दर्शन में लीन बन गये तथा लोकाग्र स्थित सिद्ध शिला से ऊपर ज्योति रूप विराजमान हो गये ।
(३) मैं विनय भक्ति पूर्वक प्रवचन का ज्ञान सीखूँ और उसकी आराधना करूं तथा प्रवचन के ज्ञाता पुरुषों की विनय भक्ति करूं, उनका गुणोत्कीर्तन करूं तथा उनकी आशातना टालूं। बारह अंगों (आगमों) के ज्ञान को प्रवचन कहते हैं तथा उपचार से प्रवचन ज्ञान के धारक संघ को भी प्रवचन कहते हैं।
(४) मैं धर्मोपदेशक गुरु महाराज की बहुमान भक्ति करूं, उनके गुण प्रकाश में लाऊं एवं आहार, वस्त्रादि द्वारा उनका सत्कार करूं ।
(५) मैं स्थविर महाराज के गुणों की स्तुति करूं, उनकी वन्दनादि रूप से भक्ति करूं तथा प्रासुक आहारादि द्वारा उनका सत्कार करूं । जाति, श्रुत और दीक्षा पर्याय के भेद से स्थविर ( १ ) वयः स्थविर (आयुवृद्ध) (२) सूत्र स्थविर ( ज्ञानवृद्ध) तथा (३) प्रव्रज्या स्थविर (दीक्षावृद्ध) रूप से तीन प्रकार के होते हैं ।
(६) मैं बहुश्रुत मुनियों की वन्दना - नमस्कार रूप भक्ति करूं, उनके गुणों की श्लाघा करूं, आहारादि द्वारा उनका सत्कार करूं तथा उनके अवर्णवाद या उनकी आशातना का परिहार करूं । प्रभूत श्रुतज्ञानधारी मुनि को बहुश्रुत कहते हैं जो सूत्र - बहुश्रुत, अर्थ- बहुश्रुत या उभय बहुश्रुत होते
हैं।
(७) मैं तपस्वी साधुओं की विनय भक्ति करूं, उनके गुणों की सराहना करूं, आहारादि द्वारा उनका सत्कार करूं एवं उनके अवर्णवाद व उनकी आशातना का परिहार करूं । तपस्वी मुनिराज वे जो अनशन - ऊणोदरी आदि छः बाह्य तपों तथा प्रायश्चित - विनय आदि छः आभ्यन्तर तपों की कठोर आराधना करते हैं ।
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(c) मैं निरन्तर ज्ञान में अपना उपयोग बनाये रखूं ।
(६) मैं निरतिचार (बिना अतिचार लगाये ) शुद्ध सम्यक्त्व धारण करूं ।