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मनुष्यों की दुर्दशा देखी है जिसे देखकर मैं स्तब्ध रह गया हूं। यह मूर्छा शराब के नशे से भी ज्यादा गहरी और घातक होती है। इसलिये मैं इस मूर्छा से दूर रहना चाहूंगा जिसका एक मात्र उपाय यह है कि किसी भी वस्तु के संग्रह करने की इच्छा तक न की जाय । मैं थोड़े से लोभ के कारण पहले थोड़ा सा संग्रह करूंगा तो संग्रह से लोभ और लोभ से संग्रह का परिमाण निरन्तर बढ़ता हुआ चला जायगा, जिस को रोक पाना मेरे लिये कठिन हो जायगा। यह मैं जानता हूं कि परिग्रह रहित मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि वस्तुएँ रखते हैं, वे एकमात्र संयम की रक्षा के लिये हैं और अनासक्त भाव से वे उनका उपयोग करते हैं। इस अनासक्त भाव के कारण, वे परिग्रही नहीं होते क्योंकि उसमें आसक्ति का होना ही वास्तव में परिग्रह है। यदि मैं भी परिग्रह के प्रति मूर्छा-मोह छोड़ दूं, आसक्ति त्याग दूं तथा अपने निर्वाह की मूल आवश्यकता रूप पदार्थ ही अपने पास रखू तो मैं पूर्ण परिग्रही या परिग्रहवादी नहीं कहलाऊंगा। किन्तु यदि एक साधु अपने वस्त्र-पात्र के साथ भी आसक्ति के बंधन में बंध जाय तो वह साधु भी परिग्रही या परिग्रहवादी बन जायगा। इसलिये ज्ञानी पुरुष संयम के सहायभूत वस्त्र-पात्रादि उपकरणों को केवल संयम की रक्षा के खयाल से ही रखते हैं, मूीभाव से नहीं। वस्त्र-पात्रादि पर ही क्या, वे महात्मा पुरुष तो अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते हैं।
___ मैं भी इस ममत्व को घटाने का अभ्यास करूंगा। मैं सचित या अचित्त थोड़ी या अधिक वस्तु परिग्रह की बुद्धि से नहीं रखूगा अथवा दूसरे को परिग्रह रखने की अनुज्ञा नहीं दूंगा क्योंकि यदि ऐसा करूंगा तो मेरा कभी दुःख से छुटकारा नहीं हो सकेगा। मैं जानता हूं कि ज्यों ही मैं परिग्रह-मोह में गिरा नहीं कि मायादि शल्य, दंड, गारव, कषाय, संज्ञा, शब्दादि गुण रूप आश्रव, असंवृत्त इन्द्रियाँ तथा लेश्याएं सभी मेरे आत्मस्वरूप को घेर लेंगे। सारे लोक में सभी जीवों के लिये परिग्रह जैसा कोई दूसरा पाश या प्रतिबंध नहीं है। यह सत्य है कि जो ममत्व बुद्धि का त्याग करता है, वह स्वीकृत परिग्रह का भी त्याग करता है। जिसके ममत्व और परिग्रह नहीं है, वही मुनि ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को जानता है। जो साधु वस्त्र-पात्रादि संयम के उपकरणों में मूर्छा एवं शुद्धि भाव का त्याग करता है शास्त्र-विहित कुलों से थोड़ी भिक्षा लेता है, संयम को असार बनाने वाले दोषों से तथा क्रय, विक्रय, और संचय से दूर रहता है और सभी द्रव्य भाव संयोग से निर्लिप्त रहता है वही सच्चा भिक्षु है।
___ मैं मानता हूं कि इस रूप में परिग्रह दो प्रकार का हो गया- मूर्छा-मोह रूप आभ्यन्तर परिग्रह तथा धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह। इस परिग्रह मोह को जानकर भी जो उसका त्याग प्रत्याख्यान नहीं करता, वह इन ग्यारह उपलब्धियों को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है—(१) केवली–पुरुपित धर्म सुनना, (२) बोधिप्राप्त करना, (३) गृहस्थावास छोड़कर साधु बनना, (४) ब्रह्मचर्य पालन करना, (५) विशुद्ध संयम प्राप्त करना, (६) संवर साधना का सफल होना, (७) निर्मल मतिज्ञान प्राप्ति, (८) श्रुति-प्राप्ति (E) अवधि ज्ञान की प्राप्ति, (१०) मनःपर्यय ज्ञान की प्राप्ति तथा (११) केवल ज्ञान की प्राप्ति। किन्तु जो इस परिग्रह मोह को जान कर उसका त्याग करता है, वही ये ग्यारह उपलब्धियाँ प्राप्त करने में समर्थ बनता है।
__ आध्यात्मिक दृष्टि से परिग्रह संज्ञा उसे कहते हैं जो लोभ मोहनीय के उदय से सचित्त आदि द्रव्यों को ग्रहण रूप आत्मा की अभिलाषा या तृष्णा के रूप में उत्पन्न होती है। यह परिग्रह
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