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मलिन बना रहा हूँ। अब मैं इस जड़ग्रस्त तुच्छता से विलग तभी हो सकता हूँ जब मैं एक ओर अपने अशुभ योग व्यापार को शुत्रता से ढालूं तथा दूसरी ओर अष्ट कर्मों के कठिन बंधनों को धर्माराधना से तोडूं व अपनी स्वरूप-विकृति को स्वरूप-शुद्धि में परिवर्तित करूं।
अष्ट कर्मों के बन्धन सांसारिकता के कारणभूत इन कर्मों की प्रक्रियाओं को मुझे गहराई से समझना होगा, क्योंकि मेरी स्वरूप-विकृति इन्हीं के बंधनों की वजह से है। इस समझ के साथ ही एक दूसरा प्रश्न भी समाधान मांगता है कि इस संसार के संचालन का सूत्रधार कौन है ?
मैं तथा अन्य प्राणी अपने-अपने अनुभव से यह तथ्य जानते हैं कि इस संसार की प्रकृति में जो कार्य हो रहे हैं, वे बहुत ही विधिवत हो रहे हैं। प्रकृति के इस सुव्यवस्थित क्रम को भंग करता है तो अधिकांशतः बुद्धिशाली मनुष्य ही। फिर भी ऐसी अनेक घटनाएं सबके ध्यान में आती हैं जिनके कारण खोजने से भी नहीं मिलते। अपनी कर्तृत्व शक्ति एवं गूढ़ वैचारिकता के कारण मनुष्य का महत्त्व कम नहीं है, फिर भी वह अनेक बार अपने को ऐसा असहाय महसूस करता है कि वह अपने से ऊपर एक शक्ति को मान लेने के लिये विवश हो जाता है। इस शक्ति के आगे वह अपने को अशक्त अनुभव करने लग जाता है।
मैं सोचता हूं कि शायद ऐसी ही विवशता की छाया में मनुष्य ने संसार के एक रचयिता की कल्पना की हो। अतः यह मान्यता उपजी और फैली कि इस संसार की रचना करने, इसका पालन करने तथा विनाश करने वाला स्वयं परमात्मा है। इतना ही नहीं, इस संसार में होने वाली किसी भी तत्त्व की क्रिया या प्रक्रिया का प्रेरक भी परमात्मा ही है —यह मान्यता मनुष्य के मन में बैठी जिसके आधार पर ही वह कहने लगा कि परमात्मा ही सारे संसार की समस्त हलचलों का संचालक है तथा उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता है। मैं देखना चाहता हूँ कि क्या यह मान्यता मनुष्य के वास्तविक शक्तिसम्पन्न ज्ञान से उत्पन्न हुई है अथवा मात्र अज्ञानजनक भय से?
इस मान्यता की थोड़ी-सी मीमांसा जरूरी है। पहले इस बात का निर्णय करना होगा कि यह मनुष्य मात्र परमात्मा जैसी किसी शक्ति के हाथ का खिलौना है अथवा स्वयं एक शक्तिशाली आत्मा? यदि उसे कठपुतली मान लेते हैं तो इस जीव तत्त्व को अजीव ही कहना पड़ेगा जिसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व न रहे। किन्तु सभी अपने-अपने अनुभव से जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। सब आत्माएं स्वतन्त्र शक्ति की धारिणी हैं तथा अपने-अपने शक्ति-विस्फोट के अनुसार अपने-अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन भी करती रहती है जिसे सब देखते हैं। इसका अर्थ यह होगा कि मनुष्य की आत्मा भी अपना सर्वोच्च विकास साध ले तो वह स्वयं भी परमात्मा बन सकती है। आत्मा से परमात्मा -यह सबकी समझ में बैठी हुई उक्ति है। फिर एक बार जो आत्मा परमात्म पद को प्राप्त कर लेती है, वह अपने अनन्त सुख को त्याग कर भला संसार के पचड़ों में फिर क्यों पड़े ? कल्पना करलें कि परमात्मा फिर से संसार का संचालन सूत्र पकड़ने के लिये यहाँ आवे भी याने अवतार ले भी तो क्या वह अपने पद की उज्ज्वलता और शुद्धता को भी तिलांजलि दे देंगे जो इस संसार की घोर विषमताओं का संचालन करें? और यदि वह अपने पद से पतित होकर ऐसा संचालन संभालते हैं तो वह भेदभावपूर्ण संचालन मान्य ही कैसे हो सकता है ? अतः संसार के संचालन का सूत्रधार
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