________________
आठ प्रत्येक प्रकृतियां निम्नानुसार होती हैं (१) पराघात—जिसके उदय से जीव बलवानों के लिये भी अजेय हो। (२) उच्छवास–जब श्वासोश्वास लब्धि से युक्त हो। (३) आतप–जब जीव का शरीर स्वयं ऊष्ण न होकर ऊष्ण प्रकाश फैलाता हो। (४) उद्योत—जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर शीत प्रकाश फैलाता है। (५) अगुरुलघु जब जीव का शरीर न भारी होता है और न हल्का अर्थात् सन्तुलित होता
(६) तीर्थंकर—जिस कर्म के उदय से जीव तीर्थंकर पद पाता है। (७) निर्माण-जब जीव के शरीर के सभी अंग और उपांग यथास्थान व्यवस्थित हों।
(८) उपघात—जिस कर्म के उदय से जीव अपने ही अवयवों से क्लेश पाता है जैसे प्रति जिह्वा, चोर दांत, छठी अंगुली आदि ।
त्रसदशक की दस प्रकृतियों का स्वरूप निम्न प्रकार है
(१) त्रस—जो जीव सर्दी-गर्मी से अथवा अपना बचाव करने के लिये एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं वे त्रस कहलाते हैं। एकेन्द्रिय के सिवाय सभी त्रस जीव होते हैं।
(२) बादर-जिस कर्म के उदय से जीव बादर अर्थात् सूक्ष्म होते हैं।
(३) पर्याप्ति—आहार आदि के लिये पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उन्हें आहार, शरीर आदि रूप परिणमाने की आत्मा की शक्ति विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। यह छः प्रकार की है—आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा और मन ।
(४) प्रत्येक जिस कर्म के उदय से जीव में पृथक-पृथक शरीर होता है। (५) स्थिर–जब शरीर के अवयव स्थिर निश्चल होते हैं। (६) शुत्र–नाभि से ऊपर के अवयव जब शुत्र होते हैं। (७) सुभग-जब किसी उपकार या सम्बन्ध के बिना ही जीव सबका प्रीतिपात्र हो। (८) सुस्वर—जब जीव का स्वर मघुर और प्रीतिकारी हो। (E) आदेय—जिस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य हो। (१०) यश कीर्ति-जिस कर्म के उदय से संसार में जीव की यश-कीर्ति का प्रसार हो।
स्थावरदशक प्रकृतियों का स्वरूप ठीक त्रसदशक की प्रकृतियों के विपरीत होता है, जो इस प्रकार हैं-(१) स्थावर (२) सूक्ष्म (३) अपर्याप्ति (४) साधारण (५) अस्थिर (६) अशुभ (७) दुर्भग (८) दुःस्वर (६) अनादेय तथा (१०) अयशकीर्ति।
नामकर्म की पिंड प्रकृतियों के उत्तर भेद गिनने पर तिरानवे प्रकृतियां होती हैं। यों नाम कर्म के संक्षिप्त दो भेद हैं—शुभ तथा अशुभ। शुभ नाम कर्म के बंध-कारण हैं—(१) काया की सरलता। (२) भाव की सरलता, (३) भाषा की सरलता तथा (४) अविसंवादन योग-कथनी करनी के भेद को विसंवादन कहते हैं और अविसंवादन का अर्थ है एकरूपता। शुभ नाम कर्म में तीर्थंकर
१६६